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लॉक डाउन : सरोकार में बढ़ गई और नजदीकियां

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🔲 हेमंत भट्ट

रतलाम, 12 मई। मैं हूं रतलाम। मेरी पहचान मेरे अपने शहरवासी है, जिनमें बसती है सहयोग, समर्पण, समन्वय, संस्कार, सद्भावना। इनसे ही मैं आबाद हूं। कई दौर देखें है मैंने।  जो अपतत्व, जो भाईचारा यहां पर है, वह कहीं पर नहीं। हर किसी को अपना बनाने की जो खूबी यहां के बाशिंदों में हैं, वह शायद कहीं होगी।
मैं जानता हूं। यहां पर जितने भी लोग आए हैं। चाहे वे बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकारी हो या फिर अन्य छोटे-मोटे कर्मचारी। वे मुझे और शहरवासियों को कभी नहीं भूलते। जो स्नेह और अपनापन निस्वार्थ भाव से बिना किसी लाग लपेट के देते हैं, वह अन्यत्र असंभव सा लगता है।

मैं गवाही देता हूं कि अब तक शहर में कई बार कर्फ्यू लगे हैं। उनमें कभी हिंसा के थे, तो कभी धार्मिक मुद्दों के। उस दौर में भी लोग सहयोगी रहे। आज लॉक डाउन में भी तन, मन, धन से सहयोग की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। न थके हैं, न रुके कदम इनके। हौसले बुलंद हैं सहयोग समर्पण और सेवा के, इतने दिनों के बाद भी।

लॉक डाउन में मुद्दा तो दूरी बनाने का था। मगर इस दौर में भी बहुत सारी नजदीकियां बढ़ गई। मैंने देखा है- हर चौराहे पर, हर सड़क पर दिन रात पुलिसकर्मी केवल इसी भावना में सेवा दे रहे हैं कि कहीं कोई? गड़बड़ ना हो जाए। यह बात सच है कि शहरवासी सभी का बहुत सम्मान करते हैं। मगर पुलिस से कुछ दूरियां अब तक रही है, लेकिन लॉक डाउन के दिनों में नज़दीकियां ज्यादा हो गई है मेरे शहरवासियों की।

दिन रात सेवा में सक्रिय पुलिसकर्मियों की क्षेत्रीय लोगों से इतनी आत्मीयता बढ़ी है कि वह अपने परिवार का सदस्य मानने लगे पुलिस को।  शहरवासी, खासकर महिलाओं के मन पुलिस के प्रति जो क्रूर भाव, रुखा व्यवहार और वसूली की छवि थी, वह लॉक डाउन खत्म करने में कामयाब रहा है। मैंने देखा है घरों से निकलते चाय के थरमस, ठंडे पानी की बोतल, कुछ खाने का सामग्री, कभी छोटे बच्चे दौड़कर पुलिसकर्मियों के पास आते, तो कभी महिलाएं, तो कभी पुरुष भी। उनका इसमें और कोई स्वार्थ नहीं था।

बस यही मन में भाव रहा कि जो हमारी रक्षा के लिए, सुरक्षा के लिए घंटों धूप में तैनात हैं। उनके लिए हम भी कुछ करें। वे अपना दायित्व निभा रहे हैं। हम अपने कर्म का निर्वाह करते रहें।  विशेष बात पुलिसकर्मियों की मैंने यह भी देखें कि जब उनके लिए सुबह शाम सरकारी भोजन आता था तो वे अपने आस-पास घूमने वाले जरूरतमंदों को खिला देते थे। उनका एक ही भाव था कि कुछ समय बाद हम घर चले जाएंगे। घर पर खाना खा लेंगे लेकिन इनको अब खाना नहीं मिलेगा। कोई माने या न माने लेकिन मैंने देखा है शहर के अधिकांश क्षेत्रों के अभ्यागतों को जिन्हें पुलिस के हिस्से का ही भोजन मिला है। पुलिस को मेरा का सलाम है।

हां, मुझे बुरा लगा था, जब मेरे अपनों को समाज सेवा करने से वंचित कर दिया था। लेकिन उन्हें पुनः सेवा का अवसर देकर मेरे अपनों को कृतज्ञ कर दिया। मुझे नाज है ऐसे शहरवासी पर जो विभिन्न क्षेत्रों में जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं। शहर में भूखे उठ तो रहे हैं लेकिन कोई भूखा सो नहीं रहा है। इसकी मुझे बेहद खुशी है। ऐसे समाजसेवियों की मैं जितनी तारीफ करूँ, उतनी कम है।

बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। समाजसेवी उम्र दराज नहीं अपितु युवा वर्ग है। वे युवा जज्बे के साथ सेवा में सक्रिय है। जो कभी अपने घर पर गिलास भरकर पानी नहीं पीते हैं, वे आज आटा गूथ रहे हैं। सब्जियां काट रहे हैं। रोटियां सेंक रहे हैं। ऐसा करना उनको इसलिए अच्छा लग रहा है कि उनके अपने कोई रोटी के एक निवाले को मन न मसोसे। सुबह-शाम, दिन-रात बस एक ही काम है उनका सेवा, सेवा और सेवा। जिनका जैसा सर्कल था उन्होंने वैसा काम कर लिया।

मगर कई लोग घर बैठे यह सोच रहे थे कि हम शहर के लिए क्या करें? मेरे अपनों के लिए क्या करें? तो उनके कदम बढ़ गए मानव सेवा समिति के रक्तदान केंद्र की ओर। वहां पर रक्तदान करके आ गए। ऐसे करने वालों में युवा वर्ग भी शामिल है। इतना ही नहीं युवतियां भी रक्तदान के लिए सक्रिय हुई। हालांकि मुझे पता है महिलाएं रक्तदान करने में हिम्मत नहीं दिखा पाती है लेकिन लॉक डाउन में मैंने देखा 21वीं सदी की युवतियां किसी से भी कम नहीं है। उनकी बाजू में भी वही दम है, वही जोश है, वही जुनून हैं वही उत्साह है, जो होना चाहिए। सोशल डिस्टेंसिंग के लिए किए गए लॉक डाउन में भी मैंने ऐसी नज़दीकियां देखी है जिन्हें में कभी भूला नहीं पाऊंगा। मुझे रतलाम होने पर गर्व है। गौरव है।

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