जिंदगी अब -2 : बिखरी लय, टूटी ताल

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🔲 आशीष दशोत्तर

वह ढोलक बजाता है यानी ढोल वादन में पारंगत एक कलाकार है । छोटे-मोटे कार्यक्रम में अपना वादन कर अपना और अपने 8 सदस्य परिवार का पालन-पोषण करता है। धार्मिक, सामाजिक कार्यक्रम, सुंदरकांड ,भजन, भक्ति संगीत और ऐसे ही कार्यक्रमों में ढोलक पर थाप देना उसे बखूबी आता है । एक कार्यक्रम से उसे तीन सौ रुपये मिल जाते हैं और दिन में दो कार्यक्रम हो ही जाते हैं। यानी वह महीने में इस कार्य से औसतन 10 से 12 हज़ार रुपए कमा लेता है।

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जब से लाकडाऊन शुरू हुआ तब से सारे कार्यक्रम बंद है। कार्यक्रम बंद है यानी उसका जीवन पूरी तरह ठहर गया है। जो कुछ बचा कर रखा था वह इन दो महीनों में खत्म हो चुका है । लाकडाऊन के दिनों में गुजर-बसर कैसे हुई यह उसका मन ही जानता है । हम और आप उसके बारे में सोच भी नहीं सकते । कार्यक्रमों से होती आय को देखकर उसने अपने घर को नया रूप भी दिया था और इसके एवज में वह प्रतिमाह लोन की किस्त जमा करता है। आज स्थिति बड़ी विकट है । उसके पास कोई काम नहीं है। अभी सारे कार्यक्रम बंद हैं ।वह न तो कहीं धार्मिक व सामाजिक कार्यक्रम में संगत कर सकता है और आने वाले कुछ महीनों तक यही स्थिति रहना है। ऐसे में वह पूरी तरह बेरोजगार है।उसकी आंखों के सामने सिवाय अंधेरे के कुछ नहीं दिख रहा है । वह क्या करें ,क्या न करे, इन मुश्किल परिस्थितियों में किस से मदद मांगे क्योंकि यहां सभी परेशान से दिखाई दे रहे हैं । यह एक छोटे से शहर के एक छोटे से कलाकार की व्यथा है।

मेरे अपने शहर में इस तरह के करीब डेढ़ सौ कलाकार हैं , जो इन छोटे-मोटे कार्यक्रमों में संगत कर अपने परिवार का गुजर-बसर करते हैं । पूरे जिले की बात की जाए तो ऐसे कलाकार तकरीबन एक हजार से बारह सौ तक मिलेंगे। यह कलाकार न तो उन कलाकारों में शामिल हैं जो लाखों रुपए लेकर अपना एक प्रोग्राम देते हैं और न ही उन श्रमिकों में शामिल है जो कड़ी मेहनत के लिए कुछ भी करने को तैयार है । इनके पास अपनी कला है और उस कला के बल पर ही ये अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं। इन्होंने कभी यह सोचा नहीं था कि ऐसे वक्त का सामना भी करना पड़ेगा । आज जब कोई कार्यक्रम नहीं है तो इन कलाकारों को यह अफसोस हो रहा है कि इन्होंने अपना जीवन यापन करने के लिए इस पेशे को क्यों अपनाया। इस तरह के कई कलाकार देशभर में होंगे जो अपने सामने एक खालीपन महसूस कर रहे हैं।

इन कलाकारों का क्या होगा। क्या इन्हें मुआवजा मिलेगा, क्या इन्हें कोई सरकारी मदद दी जाएगी, क्या इनके साथ या इनके सर पर कोई हाथ रखने वाला मिलेगा, क्या कोई सरकार अपनी योजनाओं में इन कलाकारों के दर्द को शामिल करेगी? फिलहाल इन सारे सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है। ये कलाकार बिखरे -बिखरे हैं । इनका न तो कोई अपना संगठन है और न ही कोई इनका संघ। ये कहीं न कहीं कुछ ना कुछ काम धंधा करने की जुगाड़ में घूम रहे हैं।

सवाल यह है कि हमारी सरकारें शासकीय सांस्कृतिक और कलात्मक आयोजनों के माध्यम से स्थानीय स्तर के कलाकारों को प्रोत्साहित करने की बातें तो खूब करती है मगर जब ऐसे मुश्किल के लम्हे सामने आते हैं तो वास्तविकता पता लगती है। ऐसे में क्या इस बात की पड़ताल नहीं की जाना चाहिए कि सांस्कृतिक आयोजनों और सरकारी मदद से होने वाले कार्यक्रमों में जिन बड़े कलाकारों को भारी-भरकम राशि देकर बुलाया जाता है उनके बजाए इन छोटे कलाकारों को जो गांव, देहात या कस्बे में रहकर उस क्षेत्र की सांस्कृतिक परंपरा को समृद्ध करने की कोशिश करते हैं उन्हें कोई मजबूत आधार प्रदान किया जाए । हर सरकार जब आती है तो यह दावा करती है कि उसके प्रदेश के कलाकारों, का एक बायोडाटा बनेगा। हर कलाकार को कहीं न कहीं, किसी तरह शासकीय योजना से जोड़ा जाएगा। लेकिन जब आयोजनों की बात होती है तो चंद बड़े नामों पर ही जाकर सबकी नज़र टिक जाती है, और छोटे कलाकार कहीं गिनती में नहीं आते।

क्या ऐसे कलाकारों का दोष यही है कि वह छोटे स्थान पर रहकर गुमनाम सी ज़िन्दगी जी रहे हैं और वहां के सांस्कृतिक वैभव को बचाने की कोशिश में लगे हैं । हर जिले में कई ऐसी कला मंडलिया है जो देहात में अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुति से, भजनों से, कथाओं से उस क्षेत्र की लोक परंपराओं को जीवंत रखने का प्रयास कर रही है , मगर ऐसे कलाकारों को स्थानीय स्तर पर भी मंच नहीं मिल पाता है ।तब फिर ऐसे कलाकारों का क्या किया जाए। फिर से जीवन शुरू हुआ है तो यह कलाकार अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं इनके हाथ में कुछ नहीं । इनके पास कोई डिग्री नहीं ।यह किसी और काम करने में सक्षम नहीं रहे। जो काम ये कर सकते हैं उसकी फिलहाल कोई संभावना नज़र नहीं आती। ऐसे में ये जाए तो कहां जाए। करे तो क्या करें। ऐसे कई सवालों के बीच ये कलाकार आज अपनी निगाहों में सरकारों के सामने कोई सवाल लेकर मौजूद है । इन्हें सलाह भी दी जा रही है ये श्रमिक मजदूरों के रूप में अपना पंजीयन करवाएं । यानी एक कलाकार जो अपनी सांस्कृतिक विरासत, अपनी कला को बचाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर रहा है ,उसकी पहचान एक मजदूर के रूप में हो रही है । आज के हालात में ऐसे कलाकारों की स्थिति और उनके भविष्य को लेकर चिंता करने वाला कोई नहीं है।

🔲  आशीष दशोत्तर

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