बूढ़ी मां : भारती वर्मा की चुनिंदा कविताएं
भारती वर्मा की चुनिंदा कविताएं
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बूढ़ी मां
माँ तो बूढ़ी होती है
जिम्मेदारी के बोझ से
अपने बच्चों की चिंता से
दूसरों की जरूरतें पूरी करने से
जीवन भर के समर्पण से
जीवन भर रिश्तों में
सामंजस्य बिठाने से
अपनों की सेवा में लगने से
अपनी खुशियों को त्यागने से
खुद की बेखयाली से
माँ कभी बूढ़ी नहीं होती
उम्र के बढ़ने से
माँ तो बूढ़ी होती है
अपने दर्द को छिपाने से
माँ के चेहरे पर झुर्रियां
उम्र के बढ़ने से नहीं हुई
ये लकीरें तो बताती हैं
माँ की साँसों में पनपा धुआं
और उनकी आँखों के नीचे का
कालापन उनके जीवन में
घटती हुई नमी को बताता है
मैंने माँ दर्द छिपाने से बूढ़ा होते
देखा है
माँ कभी बूढ़ी नहीं होती
उम्र के बढ़ने से
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उसका इंतजार
घड़ियां बीत रहीं थीं
उसके जीवन की….
वो इंतजार कर रही थी
टकटकी लगाए
उसके आने का….
जिसको सौंप दी थी उसने
अपनी ख्वाहिशों की पोटली
वो आया….
पर हाथ खाली थे
ना जाने कहाँ भूल आया
उसकी ख्वाहिशों की पोटली को
उसके सपनों की गठरी को
जो जाते हुए उसने सौंपी थी उसे
सवाल कर रही थीं उसकी नजरें
छलछला गयी थीं उसकी नजरें
पूछ रही थीं…. बार बार
कहाँ भूल आए
मेरे अरमान…
मेरे सपने…
मेरी ख्वाहिशें…
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काश ऐसी होती व्यवस्था
काश व्यवस्था ऐसी होती
जिसमें जनता कभी ना रोती
शासन का होता ऐसा राजा
जनता का जो ना बजाता बाजा
सब पर होता जनता का अधिकार
ना मचती लूटमार और हाहाकर
पर देखो भाई यह तो सपना
हाल सुनाए तुमको कुछ अपना
भारत मे आज अपना राज
फिर भी नहीं बनते हैं काज
नित नए राजा हैं आते
नित नए कानून बनाते
बिगाड़ के रख दी सारी व्यवस्था
जनता की कर दी हालत खस्ता
पँचवर्ष रहती सरकार
जिसमें देती दुःख अपार
समय की देखो कैसी माया
अपनों ने लूटकर खाया
रोज योजना नयी बनाती
जिसमें भोली जनता फसजाती
हर वस्तु पर लगता है कर
कर देकर जनता जाती है मर
इस पर भी रोती है सरकार
देश का करती है बंटाढार
हाथ जोड़ कर वोट ले जाते
फिर दूज का चाँद हो जाते
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मिट जाते हैं मर्ज
मिट जाते है मर्ज
पूरे हो जाते हैं कर्ज
बाकी रहता है सदा
औरत के लिए
छत का कर्ज…..
रिश्ते निभाती है
खुद खट जाती है
स्वाहा हो जाती है
पर उतार नहीं पाती
छत का कर्ज…..
कभी पिता का कहलाया
कभी पति का कहलाया
जिसने घर बनाया
उसको यही सुनाया
बाकी है तुम पर
छत का कर्ज…..
प्रीत भुलाकर
रीत निभाकर
जिसको थमाते हो
संग चली जाती है
पर उतार नहीं पाती
छत का कर्ज….
बड़ा भारी होता है
छत का कर्ज….
हाँ !!! ये… छत का कर्ज…
🔲 भारती वर्मा