गुब्बारे

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🔲 आशीष दशोत्तर

बारिश शुरू हुई और वह खुद को बचाते हुए दुकान के शेड में आ खड़ा हुआ। कुछ लोग वहां और खड़े थे। सभी अचानक आई बारिश से खुद को बचाने की कोशिश कर रहे थे। अभी-अभी जो व्यक्ति आया था उसके हाथ में कुछ फूले हुए गुब्बारे थे, इससे लग रहा था कि वह गुब्बारे बेचने वाला है।

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सहसा उसके गुब्बारे देख मेरे मुंह से निकला, यह गुब्बारे बिकने से रह गए क्या? वह मेरी तरफ देख कर बोला, यह बिकने से रह नहीं गए, ये वही गुब्बारे हैं, जिन्हें सुबह मैं फुला कर घर से निकला था। मुझे हैरत हुई ऐसा कैसे हो सकता है। दिन भर में एक भी गुब्बारा नहीं बिका।
वह बोला, आज पंद्रह दिन हो गए। मजाल है कोई गुब्बारा खरीदे। मुझे और आश्चर्य हुआ। पंद्रह दिन से किसी ने तुम्हारा गुब्बारा नहीं खरीदा? वह बोला, खरीदना तो दूर, लोग अब मेरे गुब्बारों को देखते भी नहीं। अगर कोई बच्चा ज़िद करता भी है तो मां-बाप और उसे डांट कर चुप करा देते हैं। कहते हैं न जाने कौन है, गुब्बारे पर किस-किस के हाथ लगे हैं। मुंह से फुलाया होगा। पता नहीं कोई बीमारी न आ जाए। शहर के हर बाज़ार से गुज़र चुका हूं। इतवार को चहल-पहल वाले स्थानों पर भी जाकर खड़ा रहा। कहीं ढोल -बाजे सुनाई दिए तो वहां भी जाकर अपने गुब्बारों को बेचने की कोशिश की, मगर कहीं कोई गुब्बारा नहीं बिका।

मैंने कहा फिर तुम्हारा गुज़ारा कैसे हो रहा है? वह हंसते हुए बोला, अब यह पूछ कर आप इस दुखते हुए दिल को और मत दुखाइए। अभी जैसे बारिश शुरू हुई और यहां खड़े रहने की जगह मिल गई , बस इसी तरह इस बेरहम वक्त के सितम जो हम पर हो रहे हैं, उसमें गुज़ारा करने के लिए कहीं कोई आसरा मिल रहा है, वरना ये ज़िन्दगी तो इन गुब्बारों की तरह बेकार ही हो गई है। अब तो इन गुब्बारों को देख कर भी नफ़रत सी होने लगी है। कभी पहले हर दिन पचास- साठ गुब्बारे आसानी से बिक जाते थे, वहां अब पांच गुब्बारे भी नहीं बिक रहे हैं। कहते- कहते उसकी आंखें नम हो गई। बोला, बाबूजी, यह कैसा वक्त आ गया है? कब खत्म होगा ये वक्त। क्या आप जानते हैं?

उसके सवाल अजीब नहीं थे। मगर जिस दर्द के साथ उसने ये सवाल किए थे, उन्होंने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। उसके सवालों का जवाब देने की हिम्मत मैं न कर सका।

उस बारिश भरी शाम में उस शेड के नीचे खड़े सारे लोगों की हालत लगभग एक सी ही थी। हर कोई संक्रमणकाल के दुःख से घबराकर अपनी व्यथा व्यक्त कर रहा था। सभी को देख कर लग रहा था कि आप- हम सभी हाथ में अपनी व्यथा के गुब्बारे लिए खड़े हैं और किसी के गुब्बारे नहीं बिक रहे हैं।

🔲 आशीष दशोत्तर

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