कर्ज़दार

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🔲 आशीष दशोत्तर
” पूरे पचास हजार की कर्ज़दार हो गई हूं। यह कर्ज़ कैसे चुकता होगा, कब होगा और कौन चुकाएगा, यह मैं नहीं जानती। लेकिन इसके सिवा मेरे सामने कोई रास्ता भी नहीं था। जीवन तो अब भी कर्ज़ में ही चल रहा है।”
रुआंसे चेहरे से निकलती यह व्यथा किसी कहानी का हिस्सा नहीं थी। यह हमारी ज़िंदगी का वह सच है जिसे उसके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था।

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उसका चेहरा पढ़ कर मुझे लगा कि वह ग़लत नहीं कह रही है। वह घर के बाहर खड़ी होकर किसी महिला से चर्चा कर रही थी। उनकी चर्चा से लग रहा था कि उन दोनों के बीच नौकर और मालकिन का रिश्ता है। वह कह रही थी , सबने तीन माह पहले मुझे काम पर आने से मना कर दिया। जहां-जहां मैं काम करती थी, सभी घरों के लिए मैं पल भर में पराई और संदेहास्पद हो गई। काम नहीं रहा, मैं पूरी तरह बेरोजगार हो गई। सभी का यह कहना था कि अभी घर में किसी को आने-जाने नहीं दे रहे हैं। पता नहीं किसके साथ संक्रमण घर में आ जाए। तुम कितने घरों में जाती हो, इसलिए तुम अभी काम पर मत आना।

वह घरों में झाड़ू ,पोछा ,बर्तन मांजना ,खाना बनाना आदि काम किया करती है। तीन माह पहले तक उस के पास पांच घरों का काम था। एक घर से उसे डेढ़ से दो हज़ार रुपए मिल जाया करते थे। क़रीब दस हज़ार रुपए महीने की उसकी आय थी। वही उसकी ज़िंदगी चलाने का जरिया भी। बच्चे छोटे, पति ने छोड़ दिया, यानी वह पूरी तरह घर को चलाने वाली एकमात्र सदस्य। संक्रमण काल के दौर में उसके प्रति अचानक अविश्वास का माहौल बन गया। दो दिन पहले तक जिन परिवारों के बीच हुआ एक सदस्य की तरह आया-जाया करती थी, एक वायरस के फैलते ही वह अनजान हो गई। जो घर वाले उसे मेहनताना देने के अलावा कभी कुछ खाने को या पहनने को दे दिया करते थे वे उसके प्रति ऐसा व्यवहार करने लगे, जैसे उसे जानते ही न हों।

महिला उससे पूछ रही थी कि तीन माह में उसने गुज़ारा कैसे किया। वो कहने लगी, एक माह में जितना कमाती थी, वह कमाई अचानक बन्द हो गई तो पाई -पाई जोड़ कर जो पूंजी बचाई थी, उससे घर चलाया। वह भी खत्म हो गई ,जब कुछ भी नहीं बचा तो कर्ज़ा लिया।
आज तक काम शुरू नहीं हुआ है। लोग अभी मुझे काम पर नहीं बुला रहे हैं। ऐसे में मेरी ज़िंदगी का क्या होगा, क्या पता? वह महिला उसकी व्यथा को समझते हुए भी उसे कुछ विश्वास दिलाने की स्थिति में नहीं थी। वह भी जानती थी कि इस वक्त इसके प्रति हमदर्दी दिखाना अपने घर वालों की नज़र में बुरे बनने के समान है। कामवाली महिला वर्तमान परिस्थितियों में खुद को असहाय महसूस कर रही थी।

इनकी बातें यह अहसास दिला रही थी कि ऐसी कितनी ही जिंदगियां हैं, जो इस संक्रमण काल में कितने ही कर्ज़ के तले दब गई हैं। इनको कर्जदार बनाने का ज़िम्मेदार कोई व्यक्ति है ,परिवार है ,समाज है, व्यवस्था है या कोई सरकार। यह सब जानकर भी ख़ामोश हैं। संक्रमण के इस दौर में बदले ज़िन्दगी के अर्थ ने सबको कर्ज़दार बना दिया हैं। कितने ही कर्ज़ सबकी ज़िंदगी पर चढ़ गए हैं। ये कर्ज़ कब और कैसे उतरेंगे, कौन जाने।

🔲 आशीष दशोत्तर

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