स्मृति शेष : मौन साधक के जीवन का ‘आनंद’

🔲 आशीष दशोत्तर

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वरिष्ठ साहित्यकार सुरेश गुप्त “आनंद” अब हमारे बीच नहीं रहे। वे निरंतर सृजनरत् रहे। जीवन के अंतिम क्षणों में भी वे रचना धर्मिता से जुड़े रहे। अभी-अभी कुछ समय पहले तक वे शहर में होने वाली साहित्यिक गोष्ठियों में नियमित रूप से उपस्थित होते थे। गोष्ठी में अपनी रचना पढ़ना और दूसरे रचनाकारों की रचनाओं को ध्यान पूर्वक सुनना, उनकी आदत में शुमार था। वह बहुत साधारण भाषा में अपनी बात कहते थे लेकिन उनका लक्ष्य मनुष्यता के हक़ में होता था।

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उन्होंने साहित्य की हर विधा में सृजन किया। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपते रहे। पुस्तकों के लेखक की संख्या को आधार माना जाए तो वे शहर में सर्वाधिक पुस्तकों के रचयिता रहे।

वे विचारों से गांधीवादी रहे। उनकी नौकरी खादी एवं ग्रामोद्योग विभाग से जुड़ी रही। उन्होंने अपनी इस नौकरी के साथ खादी को अपने जीवन में भी अपनाया और उम्र भर खादी के वस्त्र ही पहनते रहे। उन्होंने वाहन का उपयोग कभी नहीं किया। शहर में एक छोर से दूसरे छोर तक भी पैदल ही सफर करते रहे। यह उनके गांधीवादी जीवन के एक और पक्ष को अभिव्यक्त करता है। वे अक्सरअपनी पीड़ा इस बात को लेकर व्यक्त करते थे कि उनके साहित्य का मूल्यांकन ठीक से नहीं हो सका है। घर के बाहर बैठकर अक्सर शून्य में ताकते हुए उन्हें देखा है। आते-जाते लोगों को गौर से देखते आनंद जी आम आदमी के जीवन के उस आनंद को खोजने में लगे रहे जिसकी उन्हें अपनी रचनाओं में तलाश रही।
आनंद जी के न रहने से शहर के साहित्य जगत ने वरिष्ठ साहित्यकारों में एक महत्वपूर्ण शख्सियत को खो दिया है। उनके साहित्य सृजन के प्रति शहर में चेतना विकसित होगी तो उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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