ज़िन्दगी अब – 30 : हुनर का क्या करें ? : आशीष दशोत्तर
हुनर का क्या करें ?
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🔲 आशीष दशोत्तर
“जो दो वक्त की रोटी न दे सके ,उसे हुनर कहो या कुछ नाम दो लेकिन किस काम का? आज के समय हुनर की कोई कद्र नहीं है और जिनके पास हुनर नहीं है उनके कितने ही कद्रदान हैं।” उसके यह कहते ही उसके क़रीब खड़े हम लोगों के चेहरे के भाव बदल गए। घर के करीब खाली जगह पर मिट्टी में अपनी पुरानी सी सिगड़ी का एक सिरा दबाकर सिगड़ी जला रहे उस हुनरमंद को बरसों बाद देखा था।
वह पीतल के बर्तनों पर कलाई करने वाला था। जैसे ही उसकी आवाज़ कानों तक पहुंची, “कल्ली करवा लो” तो मेरे जैसे कुछ लोगों का ध्यान उसकी तरफ आकर्षित हुआ। छुट्टी का दिन था तो कॉलोनी के ही चार-छह लोग उसके क़रीब आ गए।
पीतल के बर्तनों पर कलाई करने वाले को सभी ने बहुत वर्षों के बाद देखा था, इसलिए सब अपनी अपनी बातें किए जा रहे थे। हम सब की बातों को सुनता हुआ वह अपने काम में मशगूल था ।
उसके पास कलाई करने के लिए अभी कोई बर्तन नहीं था , लेकिन वह अपनी तैयारी कर रहा था। शायद कोई ग्राहक उस तक पहुंचे। पुराने ज़माने में जिस तरह से कलाई की जाती थी उसी तरह एक छोटी सी पाइप नुमा सिगड़ी का एक सिरा ज़मीन में दबा कर उस पर कुछ कोयले रखे और दूसरे सिरे से हवा देकर उन्हें जलाया। थोड़ी देर में कोयले दमकने लगे।
कोयले की आंच जितनी तेज़ थी उतनी ही तेज़ उसकी आवाज़ भी थी। वह कलाई करवाने के लिए लोगों को आवाज़ लगा रहा था। बमुश्किल एक- दो बर्तन मिले, जिन्हें लेकर वह कलाई करने लगा।
उसके इर्द-गिर्द खड़े हम उसकी कलाई करने की प्रक्रिया को देख रहे थे और कलई करने के हुनर पर अपनी -अपनी राय व्यक्त कर रहे थे। वह हम सबकी बातें बड़े गौर से सुन रहा था। दो बर्तनों पर कलाई कर ली तब वह हमसे मुख़ातिब हुआ। कहने लगा, आपकी बातें सुनकर लगता है कि आप कलाई के काम से वाकिफ़ हैं। हमने कहा, बचपन में घर के पीतल के बर्तनों पर कलाई करवाने के लिए ले जाते थे मगर इस बात को बरसों बीत गए। मगर यह भी है एक लाजवाब हुनर । कितनी सफाई से मटमैले से बर्तनों को सफेदझक कर देते हो।
वह कहने लगा, यह बर्तन जितने चमक रहे हैं उतनी कालिख हमारे जीवन में घुलती जा रही है। उसकी बात सुन हमें आश्चर्य हुआ तो वह कहने लगा, आपको अजीब लग रहा होगा मगर आप ही बताइए आपके घर में अभी कोई पीतल का बर्तन है? हम में से सभी एक- दूसरे का मुंह देखने लगे। किसी के घर पीतल का कोई बर्तन नहीं । वह हंसकर कहने लगा , अब आप ही बताइए। जब लोगों के घर में ऐसे बर्तन ही नहीं जिन पर कलाई की जा सके तो हमारे इस हुनर का क्या मतलब।
यह पुश्तैनी काम बरसों से करते आ रहे हैं इसलिए चल रहा है। पिछले दो-तीन महीने कैसे गुजारे आप उसके बारे में सोच भी नहीं सकते। बड़ी मुश्किल से वह वक्त गुज़रा। अब जब बाज़ार थोड़ा चलने लगा तो गली- गली घूम कर यह कोशिश कर रहे हैं कि कुछ तो कमाई हो जाए। मगर अब बहुत हो चुका। इस समय ने हमें यह एहसास करवा दिया है कि इस धंधे में कुछ नहीं रखा है। अब हम यह सब छोड़ देंगे और कोई ऐसा काम करेंगे जिससे अपना और अपने परिवार का पेट पाल सकें। आने वाला समय कैसा आए कौन जाने। कभी फिर ऐसी मुश्किल आए तो कम से कम दो वक्त की रोटी तो हमारे बच्चों को चैन से मिल सके।
उसकी बातें सुनकर लगा कि इस वक्त ने ऐसे कई हुनरमंदों को अपना काम बदलना पर विवश कर दिया है। कई लोग अपने हुनर को छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं या फिर उस हुनर को कोस रहे हैं। समझ नहीं आता है कि इनका कुसूरवार यह वक्त है या हम।
🔲 आशीष दशोत्तर