ज़िन्दगी अब- 37 : समझ : आशीष दशोत्तर
समझ
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🔲 आशीष दशोत्तर
‘परंपराएं हमने ने ही बनाई।अपने भले के लिए ही बनाई। ये परंपराएं कब हमारी आदतों में शामिल हो गई, हमें नहीं पता। आदतों को हमने प्रतिज्ञाबद्ध होकर ऐसे स्वीकार किया कि इन्हें बदला नहीं जा सकता है। आदतों को बदला जा सकता है, लेकिन लत से छुटकारा नहीं पा सकते।
परंपराएं हमारी आदत है तो इसे समय अनुसार बदला भी जा सकता है।” उनके मुंह से यह सब सुनना बहुत अच्छा लग रहा था क्योंकि वह जिस तबके से संबंध रखते हैं उसे परंपरावादी और रूढ़ माना जाता है। इस समय उनकी सोच, समझ और वक्त के अनुसार चलने की आदत काफी सुखद लग रही थी। वे कहने लगे, अभी का दौर हमसे कई आदतों में बदलाव की मांग कर रहा है। जिन्हें हमने अपनी परंपराएं मानकर स्वीकार कर रखा है, वे हमारे भले के लिए है, मगर इस समय के हिसाब से उचित नहीं। यदि यह वक्त की दरकार है तो हमें इसे स्वीकारना चाहिए , और अपनी उन परंपराओं में कुछ परिवर्तन लाना चाहिए।
मैंने कहा, ऐसा आप सोचते हैं लेकिन करते कितने लोग हैं? जब करने की बारी आती है तो हम अपनी आदतों को परंपरा बताकर बदलने से इंकार कर देते हैं। वे कहने लगे, ऐसा नहीं है। शुरुआत हमें अपने से ही करना होती है। अपनी बढ़ाई नहीं कर रहा , लेकिन एक छोटी सी परंपरा में मैंने भी बदलाव की कोशिश की। हमारी परंपरा में घर के लोग एक साथ एक खोन (बड़ी थाली) में भोजन करते हैं। यह सिलसिला हमारे परिवारों में पीढ़ियों से चल रहा है। इसके पीछे कई सारे कारण भी हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण तो यही कि एक साथ बैठकर, एक खोन में खाना खाने से मुहब्बत बढ़ती है। लेकिन पिछले दिनों जब संक्रमण का फैलाव हुआ और यह महसूस हुआ कि एक साथ एक ही थाली में भोजन करना इस समय मुनासिब नहीं है तो मैंने अपने घर में ही इसकी शुरुआत की। घरवालों को मानसिक रूप से तैयार किया और यह समझाया कि अभी हमें अलग-अलग थाली में भोजन करना चाहिए।
पिछले तीन माह से हमारे घर में सभी सदस्य एक साथ बैठते हैं , मगर सब की थाली अलग-अलग होती है। हालांकि परंपरा इसकी इजाज़त नहीं देती , लेकिन वक्त ने यह कहा कि इस तरह का बदलाव ज़रूरी है तो अपने ही घर में यह कोशिश की और आज तक चल रही है। बडे, बच्चे सभी इसका पालन कर रहे हैं।
कहते-कहते उन्होंने मेरी ओर देखा। पूछने लगे , आप किस सोच में डूब गए? मैंने कहा सोच रहा हूं कि आप जैसी समझ हर किसी की कहां होती है। यहां लोगों को देखिए, कोई किसी तरह अपने जीवन से समझौता करना नहीं चाहता। सभी उसी तरह जिंदगी जीना चाहते हैं , जिस तरह अब तक जीते रहे। समय की मांग कुछ और है, मगर लोग एक छोटी सी बात को समझ नहीं रहे हैं।
वे हंसते हुए कहने लगे, यह समझ -समझ का फेर है। जब तक खुद पर नहीं गुज़रती लोगों को कोई बात समझ नहीं आती। लाख समझाइए, कभी किसी की आड़ ले कर नासमझी दिखा ही देते हैं। समझ- समझ के समझ को समझो, समझ समझना भी इक समझ है। कह कर वे मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए और मैं उनकी समझ का विस्तार सभी में होने की कामना करते हुए वहीं खड़ा रह गया।
🔲 आशीष दशोत्तर