ज़िन्दगी अब- 39 : ख़ुश्बू की चुभन : आशीष दशोत्तर
ख़ुश्बू की चुभन
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🔲 आशीष दशोत्तर
” ,इन्हें आप मेरी तरफ से चढ़ा देना। आपका भला होगा।” उसने यह बात इस अंदाज़ में कही, जैसे वह ऐसा कर मुझ पर कोई उपकार कर रहा हो। एक मंदिर के बाहर फूल बेचने का काम वो करता है। उस दिन जब शाम को दर्शन के लिए सपरिवार में मंदिर जाना हुआ तो उसने कहा कि माला लेते जाओ। मैंने इंकार कर दिया। कह कि इस समय हार -फूल का उपयोग हम नहीं कर रहे हैं। इसलिए हमें नहीं चाहिए। इसके जवाब में उसने उक्त बात कही।
उसकी यह बात सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे उसने यह समझा कि मैं उससे माला खरीदना नहीं चाहता। मगर ऐसी मंशा मेरी नहीं थी। उसकी बात मेरे भीतर तक उतर गई। मंदिर से दर्शन करने के बाद फिर से जब बाहर आए तो मैंने उससे पूछ ही लिया कि तुमने ऐसा क्यों कहा था कि मेरी ओर से यह माला चढ़ा देना। क्या तुमको ऐसा लगा कि मैं माला नहीं खरीद सकता?
उसने कहा, नहीं बाबू जी। आप क्यों नहीं खरीद सकते। आप तो हर बार खरीदते ही हैं। मुझे मालूम है, लेकिन इन मालाओं का मैं अब करूं क्या? घर में पड़ी रहती है तो इनकी खुशबू बेचैन करती है। पिछले तीन माह से घर में महकते इन फूलों की खुशबू से तो अब डर सा लगने लगा है। मैंने कहा, फूलों की खुशबू से भी कोई डर लगता है।
उसने कहा, जब सुबह ढेर सारे फूल आप लेकर आएं, दिन भर बैठ कर उनकी मालाएं बनाएं और शाम तक वह न बिके। फिर आप उन्हें घर ले जाएं। रात भर घर में रखें। अगले दिन भी न बिके तो आपका क्या हाल होगा? आपको ऐसी खुशबू भयभीत नहीं करेगी?
उसकी बात अजीब थी। उसने बताया कि पिछले तीन माह से उसका धंधा लगभग खत्म हो गया है । लोग न तो फूल खरीद हैं, न माला। बहुत ही अधिक आवश्यकता होने पर कोई खरीद लेता है। कुल मिलाकर धंधा दस फ़ीसदी रह गया है। शादी-ब्याह के सीजन में भी कुछ नहीं मिला। अब आप मंदिर के बाहर की कल्पना कीजिए, पहले जहां हर दिन मेरी सौ से डेढ़ सौ मालाएं बिक जाया करती थी अब 15 भी नहीं बिक रही है। ऐसे में इन फूलों की ख़ुश्बू मुझे परेशान कर रही है। ऐसे में कैसे घर चलाया जाए और कैसे अपने जीवन की बगिया को महकाया जाए। कहते-कहते उसका गला रुंध रहा था। उसकी बातें सुन मुझे भी उन महकदार फूलों की खुश्बू अजीब लग रही थी।
🔲 आशीष दशोत्तर