दुष्यंतकुमार के बहाने

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🔲 डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला

अभी कुछ दिनों पहले डीबी स्टार भोपाल  के प्रथम पृष्ठ पर रतलाम के ही जाहिद मीर की एक रिपोर्ट छपी है, जिसमें बताया गया है। सुप्रसिद्ध कवि दुष्यंतकुमार भोपाल में जहाँ रहते थे, वहाँ उन्होंने पचपन साल पहले जो आम का पौधा रोपा था, अब वह फलदार वृक्ष है। उसका अस्तित्व समाप्त करने के इरादे से स्मार्ट सिटी योजना के जिम्मेदार अधिकारी वृक्ष की जड़ों में एसिड डलवा रहे हैं। यूँ तो यह समाचार बहुत छोटा है, क्योंकि विकास के नाम पर हरे-भरे और बहुमूल्य पेड़ों की कटाई तो अब रोज का धंधा है। आदमी की संवेदनाएँ जब लुप्त हो जाती हैं या हाशिये पर धकेल दी जाती हैं, तब पेड़-पौधे , पशु-पक्षी , यहाँ तक कि आदमी की बेरहम हत्या पर भी किसी को गुस्सा नहीं आता, रोना नहीं आता। फिर  विकास के नाम पर तो सब जायज है। लेकिन हमारी साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर पर कोई हाथ डालने लगे, तो सबको मिल कर आवाज उठानी चाहिए। अफसोस की बात है कि अब अपनी धरोहर को बचाने वाले लोग नहीं हैं। वे अपनी थाती को बेच कर बाजार को बचा ले जाना पसंद करेंगे,लेकिन आवाज उठाने वालों के साथ थोड़ी देर खड़ा रहने की तकलीफ भी नहीं उठायेंगे।

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यह सर्वविदित है कि साउथ टीटी नगर वाला वह मकान पहले ही जमींदोज कर दिया गया है, जहाँ रहते हुए दुष्यंतकुमार ने कालजयी रचनाएँ लिखीं। होना तो यह चाहिए था कि उस जगह पर दुष्यंतकुमार का स्मारक होता, वह साहित्यकारों के तीर्थ के रूप में विकसित किया जाता, और दुष्यंत कुमार के जीवित स्मृतिचिह्न आम के पेड़ के साथ-साथ उन सब चीजों का वहाँ संग्रहालय होता , जो कवि के बहुत करीब थीं। कवि  को केवल कविताओं में नहीं ढूँढा जाता ,वह उसके आसपास की हरेक चीज में जिंदा होता है, तो “आंगन में एक वृक्ष’ (दुष्यंतकुमार का उपन्यास) में भी होगा ही। लेकिन सरकार और साहित्य के बीच हमेशा ही छत्तीस का आँकड़ा रहा है। साहित्यकार पद और धन का लोभी न हो, तो कभी सत्ता के इर्द गिर्द नहीं भटकता। सच्चा साहित्यकार शासन के कान उमेठता रहता है। जागरुक कवि और लेखक इसीलिये दुर्दशा के शिकार होते रहे हैं। हमारे हिन्दी साहित्यकारों की पीड़ा को सुनने के लिये तो अब कोई भी तैयार नहीं।

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दुष्यंतकुमार के बहाने हम सब अपना आसपास टटोलें। उज्जैन में शिवमंगल ‘सुमन’ के घर को, उनके हस्तलेखों और उनकी प्रिय वस्तुओं को धरोहर के रूप में कौन सहेज पाया। राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल ने जहाँ बैठ कर भगतसिंह, सुभाषचंद्र बोस और चंद्रशेखर आजाद पर महाकाव्य लिखा, जहाँ भगतसिंह की माँ चल कर आईं, वह जगह कहाँ डूब गई, कोई जानता है? विश्वविख्यात इतिहासकार भगवतशरण उपाध्याय के निवास “गंधमादन” का फिर क्या हुआ? कोई जानता है? खंडवा में माखनलाल चतुर्वेदी, जबलपुर में हरिशंकर परसाई, शाजापुर में बालकृष्ण शर्मा नवीन, बड़नगर में कवि प्रदीप, शुजालपुर में मुक्तिबोध, जावरा में दिनकर सोनवलकर, इन्दौर में चंद्रकान्त देवताले, रतलाम में प्राण गुप्त की स्मृतियों को सहजने में हम सब असफल रहे हैं, इसीलिये यह कहने में संकोच नहीं कि हम धनी होकर भी दरिद्र हैं, सम्पन्न होकर भी विपन्न हैं।

अभी कुछ दिन पहले मैं मध्यप्रदेश के ही ओरछा में गया था। वहाँ उस जगह पहुँच कर आँखे छलछला आईं, जहाँ महाकवि केशवदास ने रहते हुए विपुल साहित्य रचा। घर उजाड़ था, और खुला पड़ा था। भीतर कुछ भी ठीक नहीं।
टीकमगढ के समीप कुंडेश्वर में बननारसीदास चतुर्वेदी बहुत लम्बे समय तक रहे, और साहित्य साधना की, लेकिन वहाँ भी उनके नाम पर कुछ नहीं। पिछले साल अल्मोड़ा के कौसानी में कविवर सुमित्रानंदन पंत के घर की भी यही दशा देखने को मिली। कुछ फोटो टंगे हुए मिले, और पंतजी की एक जर्जर जैकेट के अलावा वहाँ कुछ भी नहीं। महाकवि जयशंकर प्रसाद की साहित्यिक धरोहर को लेकर उनके वंशजों में ही उत्साह नहीं।जब हिन्दी साहित्य के महान् पुरोधाओं की धरोहर हमसे नहीं सम्हल रही है, तब आंचलिक साहित्यकारों की साहित्यिक सम्पत्ति के क्या हाल होंगे, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं।

कहने को तो कहा जाता है कि’साहित्य समाज का दर्णण है’, तो फिर साहित्यकार ही है , जो समाज का वास्तविक चेहरा हमें दिखाता है। दुष्यंतकुमार कबीर की तरह समाज का चेहरा दिखाते रहे, सच्चाई से रूबरू करवाते रहे। हम गर्व कर सकते है कि दुष्यंत कुमार मध्यप्रदेश में जन्मे और यहीं पर रहे। दुष्यंत कुमार के साथ-साथ उन सभी दिवंगत कवियों और लेखकों की हमें सुध लेनी चाहिए। वे जो विरासत छोड़ गये हैं, वह एक तरह से हमारी बपौती है। उन पर हमारा हक है, और वह हमें नहीं छोड़ना चाहिए। यदि शासन इस दिशा में संवेदनशील होकर सोचना शुरू करे , तो धार, इन्दौर, उज्जैन, ग्वालियर, जबलपुर, भोपाल, रीवाँ, विदिशा, सीतामऊ,दमोह, शाजापुर सहित कई शहरों में साहित्य के तीर्थ जाग उठेंगे। इससे न केवल शहरों की सभ्यता में चार चाँद लगेंगे, अपितु नई पीढी में भी रचनात्मक संस्कार के बीज पड़ेंगे।

🔲 डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला

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