ज़िन्दगी अब- 42 : धुआं ही धुआं : आशीष दशोत्तर
धुआं ही धुआं
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🔲 आशीष दशोत्तर
लकड़ियां गीली थीं मगर वह उन्हें इकट्ठा किए जा रही थी। बारिश की संभावनाओं के बीच बिजली विभाग के अमले ने कॉलोनी में पेड़ों की छंटाई की थी। कई पेड़ों की शाखें काट दी गई। सभी दूर से काटी गई इन शाखों को कॉलोनी में खाली पड़े इस प्लाट पर डाल बिजली विभाग का अमला चला गया।
कुछ दिनों ये लकड़िया पड़ी रहीं। पत्तियां गाय खा गई। सिर्फ लकड़ियां बची रह गई। बारिश की शुरुआत हुई। खुले में पड़ी सभी लकड़ियां भीग गई।
इतनी सारी लकड़ियों को रोज़ जब मैं देखता तो उन मजदूरों की याद आ जाती जो इन्हें उठाकर इसी खाली प्लाट पर अपना एक चूल्हा जला लिया करते थे। हर शाम इसी प्लॉट पर अपना चूल्हा जलाते। यहीं अपनी रोटियां पका लेते।
जब से यह संक्रमण का दौर शुरू हुआ, न वे मजदूर हैं, और न ही उनका जलता चूल्हा। चूल्हे से उठता धुआं भी यहां दिखाई नहीं देता। पता नहीं वे मजदूर कहां है और किस हाल में है। उनके चूल्हे के अवशेष इसी खाली प्लाट पर रोज़ दिख जाते हैं और उनका चेहरा आंखों के सामने उभर आता है।
बहरहाल लकड़िया पड़ी-पड़ी बारिश में पूरी तरह भीग चुकी थीं। एक दिन सुबह सुबह उन लकड़ियों की आवाज़ सुनकर नींद खुली। सुबह पांच-साढ़े पांच बजे का समय रहा होगा। पूरी तरह उजाला भी नहीं हुआ था। अंधेरा अपने अंतिम चरण में था। ऐसे में लकड़ियां भला कौन उठा रहा होगा, यह सोच कर अपनी बालकनी से बाहर झांका तो देखा एक महिला और एक लड़की के साथ उन लकड़ियों को खाली प्लाट पर इकट्ठा कर रही है। करीब पंद्रह वर्ष की लड़की उसकी बेटी लग रही थी। लड़की प्लॉट पर घूम कर लकड़ियां इकट्ठा कर रही थी और ला कर मां को दे रही थी।
कुछ देर उनका क्रम चलता रहा । लड़की प्लॉट पर घूम- घूम कर लकड़ियां इकट्ठा करती रही और मां उसे एक कपड़े में बांधकर गट्ठर बनाती रही। गट्ठर जब पूरी तरह तैयार हो गया तो मां – बेटी के चेहरे पर एक संतोष का भाव था।
अब तक उजाला हो चुका था। वे दोनों मां -बेटी इस गट्ठर को उठाकर ले जाने की तैयारी में थी। उनसे मैंने सहसा पूछ लिया, ये लकड़ियां तो इतनी गीलीं है। इन्हें ले जाकर क्या करोगी? वह महिला कहने लगी, आपको यह लकड़ियाँ गीली दिख रही है, मगर हमारी ज़िंदगी तो इन लकड़ियों की ही तरह है। कभी हमारी झोपड़ी में आकर देखिए वहां सब कुछ गीला ही मिलेगा। छप्पर से पानी टपकता है। घर के भीतर रखा सामान सब गीला मिलेगा। यह गीलापन तो हमारे जीवन में शामिल है। रही बात इन लकड़ियों की, तो ये हम आज के लिए नहीं सर्दी के मौसम के लिए ले जा रहे हैं।
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। अभी तो बारिश भी पूरी तरह नहीं आई है और अभी से सर्दी के मौसम के लिए लकड़ी इकट्ठा करना। वह बोल पड़ी, अभी से इकट्ठा न करें तो क्या करें। अभी इन्हें ले जाकर अपने छप्पर पर बिछाएंगे। ये बिछी रहेंगी तो पानी कम टपकेगा। जब सर्दी आएगी तब धूप में थोड़ी- बहुत ये सूखेगी ही। इनसे फिर हमारे घर का चूल्हा जलेगा और उस चूल्हे पर दो रोटी पक पाएगी।
मैंने कहा, यह गीली लकड़ी तो बहुत धुआं देती है। वह महिला कहने लगी, यह धुआं तो हमारी नस-नस में बसा हुआ है। कहने को गैस के चूल्हे घर-घर पहुंच रहे हैं, मगर हम जैसों की ज़िंदगी इसी धुएं से घिरी हुई है। पिछले कई दिनों से हमारे घर में चूल्हा जलाना ही मुश्किल हो रहा है। कहीं लकड़ियां इकट्ठा करने जाओ तो भी लोग इस तरह देखते हैं, जैसे हम कोई गुनहगार हैं। अंधेरे मुंह आकर यहां से इसीलिए लकड़ियां ले जाना पड़ रही है। इस अजब दौर को देखने के बाद डर लगने लगा है कि आने वाला समय न जाने कैसा हो। ये लकड़ियां कम से कम हमारे घर के चूल्हे से उठने वाले धुएं को तो कायम रखेंगी। यह कहते हुए महिला लकड़ियों का गट्ठर सर पर रखा और चली गई। अपनी बेटी के साथ सर पर गट्ठर उठा कर जाती वह महिला मेरे सामने धुआं ही धुआं फैला गई।
🔲 आशीष दशोत्तर