ये कैसा विकास

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🔲 मंजुला पांडेय
उथल पुथल के दौर में
जीवन उनका गुजर रहा
जर,जंगल,जल की छीनाझपटी में
तन-मन उनके तिनका-तिनका
बिखर रहा

सब्जबाग दिखा कर उनको
घर आंगन ही लूट रहे
विकास नाम के प्रलोभन से
लहलहाते खेत ये कौन
जल्लाद छीन रहे

भ्रष्टाचार के सांझेपन में
दस्तावेजी साक्ष्य भी
पर्दे के पीछे बैठे किरदारों-सी
बोलियां हैं आज बोल रहे
सौदा है ये घाटे का बोल
उपजाऊ भूमि भी कागजों में
क्यूं बांझपन का दंश हैं झेल रहीं ?

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महकमे खड़े क्यूं मौन आज?
कृषक हक-हूकूक -ए-जर
क्यूं हैं छोड़ रहे?
कौन सा है वो दानव जिसके
भय से ये सब भ्रमित हो सोच रहे

खेती-बाड़ी हुई सब बंजर
कंक्रीट के जंगल बो कर
विकास की ओर शिरकत करो के
स्वर कानों में इनके विष घोल रहे

अपने कानन की छोड़ के चिंता
जंगलराज आज हुआ ये कैसा ?
खग,विहग,जीव,जंतु आज
शहरों में हैं क्यूं विचर रहे?

नेतृत्व हुआ है आज गूंगा-बहरा
देख रहा है क्यूं आज ठगी तमाशा ?
विनोबा का भूदान विप्लव भी
आज खड़ा है क्यूं सकते में ?

जरहीन हो क्यूं नारकीय जीवन
जीने को कृषक आज मजबूर हुए ?
आंगन,बस्ती,घर,कुंए सब के सब
आज अधिग्रहण क्यूं हुए ?
मुआवजा तो दूर रहा
मूल से भी बहुत दूर हुए

राह तकती तरसी आँखे आया न विकास न विकास की गंगा लहराई
न छलके सहरा में जल प्रपात कभी
हां !मात्र ये बड़ा चमत्कार हुआ कि
सदा चुप्पी साधने वाला कृषक भी
बार-बार फरियाद लिए
मुफलिस-बेबस-सा अब
विप्लव को मजबूर हुआ …

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गुरबत में पलता बचपन

गुरबत में जन्मे इंसान का
नन्हा बचपन कब
जिम्मेदारी के बोझ तले
दबते चला जाता है …
पता हीनहीं चलता है …
अब तो हर दम
बड़ेपन का एहसास
साथ रहता है …

दूध की बोतल,
कुछ सस्ते बिस्किट के
टुकड़े, मैले हाथ
अधनंगा शरीर,
पैरो में टूटी चप्पल
आँखो में दो जून की
रोटी की तलाश …
बस यही दुनिया
बस यही फिक्र आज
साथ है मेरे …
मेरी पीड़ा जाने कौन
खुदा भी देखो
कैसे बैठा है मौन!

आधारी सच् को !
कौन देखता है,
सच् है क्या?
और झूठ है क्या?
गुरबत की आंच
को वही झेलता है,
शैशव जिसका गुरबत
में बढ़ता खेलता है,
वही गरीबी की …
यारब …
तन्हा भूख झेलता है।

मन तू मेरे छोड़ सोचना
ये दुनिया है,यहां बुत-ए
-खुदा भी अब महलों
में बसा मिलता है …
कभी कभी महलों में
उम्र बसर करने वाला
इंसान भीड़ में भी तन्हा
खड़ा मिलता है …

कोई तो ऐशों में पला-बढ़ा
कोई फांको की हकीकत को
उम्र भर झेलता है …
कर लें ! कितने भी जतन
रियाकार सियासत के चलते
दो जून की रोटी को भी
मुफलिस का पेट तरसता है …

सबके अपने-अपने मकसद हैं
इक दूजे के कंधे पर
रख कर पैर दुनिया को
जीतने की मंशा रखते हैं …
रौद कर चलते हैं बड़े लोग
किसी को कहां इस बात की
फिक्र की फुटपाथ पर रहने
वाला कब,कहां,कौन मरता है …
गुरबत की आग को वही
हर पल महसूस करता है …
जिसका बचपन हर रात
भूखे पेट की चुभन झेलता है …

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🔲 मंजुला पांडेय, पिथौरागढ़, उत्तराखंड

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