ट्राएंगल

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🔲 आशीष दशोत्तर

काफी दिनों से घर के सामने पड़े खाली प्लाट पर मलबे का ढेर रखा हुआ था । इस ढेर को फैलाने के लिए एक मजदूर की तलाश जारी थी। काम इतना सा ही था इसलिए कोई मजदूर करने को तैयार नहीं हो रहा था।इस बीच लॉक डाउन हो गया और कार्य नहीं हो पाया। लॉकडाउन खुला तब मजदूरों का संकट रहा । जो अब तक बना हुआ है ।

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इस बीच कॉलोनी में ही एक मकान पर कुछ कार्य होते देख मुझे उम्मीद बंधी के यहां कोई न कोई मजदूर मिल ही जाएगा, जो इस काम को कर दे . वहां जाकर पता किया तो मालूम हुआ कि मिस्त्री खुद ही मजदूरी का काम कर रहा है। दो दिन बाद वह मिस्त्री अपने साथ एक मजदूर को भी ले आया। उस दिन वह मजदूर काम करता हुआ दिखाई दिया।

अगले दिन सुबह- सुबह जब मजदूर काम पर आया तो मैंने उससे आवाज़ देकर बुलाया और कहा यह मलबे का ढेर रखा हुआ है। इसे प्लॉट पर फैलाना है। उसने कहा,अभी तो मिस्त्री के साथ काम करना है,लेकिन शाम को जाने के पहले काम कर जाऊंगा।

मुझे भी ठीक लगा, क्योंकि शाम तक मैं भी दफ्तर से लौट आऊंगा। फिर यह काम ठीक तरह से करवा लेंगे। मजदूरों के बढ़ते मेहनताने को देखते हुए मैंने उससे पहले ही इस काम के मेहनताने आने के बारे में पूछ लिया। वह कहने लगा, दे देना जो आपकी इच्छा हो। मुझे उम्मीद बंधी कि यह काम पचास रूपए में ही हो जाएगा।

शाम को अपने वादे के मुताबिक उस मकान से काम पूरा कर वह आ गया। तकरीबन छह बजे का समय होगा। मैं दफ्तर से लौटकर चाय पी रहा था। उसे भी चाय दी, तो कहने लगा, अभी वहां से पी कर आया हूं। उसकी बात में सलीका था। फिर पूछने लगा इसे फैला दूं। मैंने उसे फावड़ा ला कर दिया और वह अपने काम में जुट गया। फिर पूछने लगा , यह मलबा क्यों फैला रहे हैं। मैंने कहा गाड़ी रखने के लिए जगह ऊंची-नीची है। मलबा फैल जाएगा तो जगह समतल हो जाएगी।

वह कहने लगा, आपने पहले बताया नहीं। मैं इसे ‘ट्राएंगल शेप’ में बिछा देता हूं , ताकि गाड़ी जितनी जगह बाकी की ज़मीन के बराबर हो जाएगी। उसके ट्राएंगल बोलते ही मेरा माथा ठनका। यह मजदूर इस तरह बात कैसे कर रहा है? उससे बात शुरू की। पूछा क्या करते हो? सिर्फ मजदूरी करते हो या और भी कुछ काम कर रहे हो।

कहने लगा, मैं तो एक स्टूडेंट हूं साहब। बीए में पढ़ता हूं। यहां किराए से कमरा लेकर रहता हूं। लॉकडाउन शुरू हुआ तो पढ़ाई बन्द हो गई। किराया भत्ता मिलना बंद हो गया। सोचा गांव चला जाऊं। गांव गया। वहां पर पहले से ही बेरोज़गारी थी । कोई काम नहीं होने से फिर शहर लौट आया। यहां कर सोचा कि कुछ काम कर कम से कम घर का किराया और दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम तो कर लूं। इस गरज से यह काम करने लगा।

वह ये सारी बातें इतनी सादगी से कह गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उसकी बातों ने ज़िंदगी के एक ट्रायंगल का निर्माण कर दिया, जहां एक एंगल पर उसका लक्ष्य, तो दूसरे पर कोशिशें और तीसरे एंगल पर मुश्किलें खड़ी नज़र आ रही थी।

काम ख़त्म कर ओ जाने लगा तो मैंने फिर पूछा कितने पैसे दूं ? उसने फिर वही बात कही, जो आपकी इच्छा। मैंने उसके हाथ में दिनभर की मजदूरी रख दी, तो कहने लगा, नहीं ,इतना नहीं बनता है बाबूजी। मैंने कहा, रख लो। यह तुम्हारी ज़िंदगी के ट्रायंगल के किसी एक एंगल को मज़बूत करने में सहायता करेगा। वह ‘थैंक्स” कहकर चला गया मगर उसके जाने के बाद से अब तक हर ज़िन्दगी में एक नया एंगल नज़र आ रहा है।

🔲 आशीष दशोत्तर

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