सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध हुए बिना श्रेष्ठ लेखन असंभव : जितेंद्र देवतवाल
🔲 नरेंद्र गौड़
मध्यप्रदेश के मालवा अंचल का जिला शाजापुर शुरुआत से ही साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है। यहां आज भी अनेक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएं संचालित हो रही है। लेकिन प्रतिबद्ध विचारधारा के कवियों का अवश्य यहां टोटा रहा है। प्रभावी ढंग से कविता पाठ करने की योग्यता भी चंद लोगों को हासिल है। जबकि शाजापुर जिले में ही जन्में पं. बालकृष्ण शर्मा नवीन, नरेश मेहता, हरिनारायण व्यास और विष्णु नागर सरीखे कवि साहित्यिक आयोजनों में प्रभावी काव्यपाठ के लिए जाने जाते रहे हैं। इसके अलावा उनकी कविताओं ने शहर को राष्ट्रीय स्तर की ख्याति प्रदान की है।
नगर की साहित्यिक प्रतिभाओं में जितेंद्र देवतवाल का नाम तेजी से उभरकर सामने आ रहा है। चर्चा के दौरान इन्होंने कहा कि साहित्यकार को अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता और समाज सापेक्षता को स्वीकार करना ही होगा। समय की मांग भी यही है।
अनेक रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी से
प्रदेश की राजधानी भोपाल में 16 अक्टूबर 1991 को जन्में जितेंद्र के लेखन की शुरुआत वर्ष 2000 से हुई। वह कविता, कहानी, लेख, नाटक, निबंध और पुस्तकों की समीक्षा में काफी रूचि रखते है। इनकी अनेक रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से हो चुका है। साहित्यिक आयोजनों में प्रभावी ढंग से काव्यपाठ कर इन्होंने श्रोता समूह की खासी तालियां बटौरी है। एमएससी, बीएड, एडीसीए तक शिक्षा प्राप्त जितेंद्र ‘ज्वलंत‘ के उपनाम से साहित्य रचना करते हैं।
यहां प्रस्तुत है इनकी चुनिंदा कविताएं –
किताबें
किताबें होती हैं माँ की तरह
किताबें जीना सिखाती हैं
किताबें मरना सिखाती हैं
किताबें दूर करती हैं
जीवन का विरह
किताबें हुनर सिखाती हैं
किताबें जीवन संबंधों से .
रू.ब.रू कराती हैं
किताबें करहाते जीवन से
लाती हैं उबारकर
किताबें जीवन का जश्न हैं
किताबें मृत्यू का मोक्ष हैं
किताबें श्वासों का छंद हैं
किताबें मन का मयूरपंख हैं
किताबें जीवन के इम्तिहान में
साथ देता सहारा हैं
साथ मिला जिसको इसका
कठिन विपदाओं में न हारा हैं!
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समय
समय आता हैं . समय जाता हैं
समय हाथों से
रेश्मी रूमाल सा
फिसल जाता हैं
समय का इस्तेमाल
करना हमें नहीं आता
समय हमें इस्तेमाल
कर लेता हैं
अपने पंजो का हमें
रूमाल कर लेता हैं
समय का बिगडौल अश्व
हमारे भाल पें अपनी टाँगे रख देता हैं
समय के प्रचण्ड अश्व पे
येन केन प्रकारेण हम जो
सवार हो जाए
जीवन की बाजी
हमारे हाथ हो जाँए
हम जीत जाँए
ये सनए ये संवत्सरए घडी मास
हफ्ते . क्षण . प्रतिक्षण
हमारे संकेतो पर स्पंदन करे
हम उनका नहींय वो हमारा वंदन करे!
युग कितना ही करवटे ले
जो संकल्प लेके खडा है
वो ही शिखर परय वो ही सबसे बडा हैं
समय के नाग को
जो अपनी बीन पर नचाएं
वो ही सिकंदर कहलाएं
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क्यों न कहूँ
क्यों न कहूँ
निस्वार्थ हँसी
जो निकलती थी
असीम होकर
आज किसी कंदरा में
जाकर बैठी हैं!
क्यों डरी हुई हैं
रोद्र रेगिस्तानों की
भूलभुलेया से
जो निहत्थे पक्षियों
के परों को लगे है काटने
क्यों न कहूँ
जब कमल की
कोमलता भी
संझा का साथ देकर
भौरो की अस्मिता
कैद किए हैं !
क्यों न कहूँ
जब सूरज भी अपनी
प्रेय रश्मियों
को छोड़
चला जांए
किसी पर्वत
की ओट में
क्यों न कहूँ
जब सभी लगे हो
किसी निर्भीक आवाज
का अन्त करने
और जिम्मेदार
मौन मंद मंद मुस्कान
बस बिखेर रहे हो
क्यों न कहूँ
जब आदमी ही आदमी
का गला घोट
कर रहा हो
इन्सानियत का कत्ल
जिसके परिणामस्वरूप
हो रही
धरती की कोंख बांझ
क्यों न कहूँ
जब भूख से बिलखते
कुपोषित बचपन को
भरपेट भोजन
नसीब न हो
और दाने
गोदामो में
सड़ते रहे!
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योद्धा
मानवता की साधना में अनवरत है योद्धा।
मंजिल तक पहुचने में संघर्षरत है योद्धा।
हर असफलता को बदलने में सफलता।
टूटना थकना गुनाहए प्रयत्नरत है योद्धा।।
आलोचनाएँ तो उपज है रूग्ण मन की।
बन इतिहास स्तुतिगान कर्मरत है योद्धा।।
गीता कुरान बाइबिल गुरूग्रंथ कहते है।
कर्तव्यों के निर्वाह में श्रमरत है योद्धा।।
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मृत्यु
मृत्यु क्या तुम भी
अतिथि हो !
आ जाती हो
बिना तिथि के
जीवन के रंगमंच पर
और बना जाती हो
अनित्य को नित्य
लघु को विराट
अल्प को भूमा
और देह को विदेह