संस्कृति के सिलसिले का लंबा सफर : देश के 266 वर्ष पुराने नुक्कड़ नाटक ’कंस वधोत्सव’ का 24 नवंबर की रात होगा मंचन
🔲 कोरोना के कारण इस बार चल समारोह नहीं
🔲 नरेंद्र गौड़
शाजापुर, 23 नवंबर। नगर के सोमवारिया बाजार में देश का सबसे पुराने नुक्कड़ नाटक ‘कंस वधोत्सव‘ की 266 वर्ष पुरानी परंपरा का निर्वाह 24 नवंबर की रात कार्तिक दशमी को किया जाएगा। कारोना के कारण नाटक के पूर्व निकाले जाने वाले पारंपरिक चल समारोह को स्थगित कर दिया गया है। पहले यह नाटक सोमवारिया बाजार के निकट गोवर्धन नाथ हवेली मंदिर परिसर में मंचित होता था, लेकिन बढ़ती लोकप्रियता एवं दर्शकों की अधिक संख्या के कारण यह प्रस्तुति बाजार में की जाने लगी।
मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग से अनेक बार नाटक को संरक्षण देने की मांग की जा चुकी है, लेकिन सरकार ने प्रदेश ही नहीं वरन देश की इस प्राचीन धरोहर की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया।
कलाकारों में भाग लेने की मची होड़
नाटक के प्रति कालाकारों का उत्साह देखते ही बनता है। इन लोगों ने स्वयं के खर्च पर मुखौटे, नकली आभूषण और पौषाखे तक की व्यवस्था अपने खर्च पर कर रखी है। कई कलाकार ऐसे भी हैं जो अपने पूर्वजों के जमाने से इस नाटक में भाग लेते आए हैं। नाटक के मुख्य खलनायक मथुरा के अत्याचारी कंस के पुतले का वध भगवान श्रीकृष्ण की भूमिका में उतरे पात्र द्वारा किया जाएगा।
करीब सौ वर्षो तक यह नाटक मंदिर परिसर में हुआ मंचित
गोवर्धननाथ वैष्णव मंदिर के मुखिया का कहना है कि है कि कंस वधोत्सव नाटक की कथावस्तु उनके पुरखे स्व. मोतीराम मेहता, गोवर्धनदास, बालाजी मेहता, वासुदेव मेहता आदि लगभग 266 वर्ष पूर्व मथुरा से लाए थे। करीब सौ वर्षो तक यह नाटक मंदिर परिसर में मंचित होता रहा। सोमवारिया बाजार में एक चबूतरे जिसे अब कंस चबूतरा कहा जाता है, कंस का पुतला मंच पर स्थापित कर दिया गया है और तैयारियां जोर शोर से जारी है।
चुटीले संवादों की होगी अदायगी
कंस के वध से पहले श्रीकष्ण, उनकी सेना तथा कंसपक्ष के बीच चुटीले संवादों का आदान प्रदान होगा। नाटक की जान यही संवाद होते हैं, जिन्हें सुनने शहर ही नहीं आसपास के गांवों की जनता उमड़ पड़ती है। इन संवादों में शहर तथा देश की सामाजिक, राजनीतिक परिस्थिति को लेकर करारे व्यंग्य किए जाते हैं। बढ़ती महगाई, बेरोजगारी, प्रशासनिक भ्रष्टाचार स्थानीय नेताआंे के काले कारनामों की भी बखिया संवादों के जरिए उधेड़ी जाती है। इसके अलावा शहर की प्रशासनिक अव्यवस्थाएं भी संवादों का हिस्सा बनती हैं। यह डायलाग पूर्व नियोजित नहीं होते हैं। इसके पात्र मौलिक प्रतिभा का इस्तेमाल करते हुए कई दिन पूर्व पूर्वाभ्यास कर लेते हैं।
नाटक के कलाकार समाज के किसी भी वर्ग के
कलाकारों ने अपने खर्च पर पौशाखों की व्यवस्था कर रखी है। नाटक के कलाकार समाज के किसी भी वर्ग के हो सकते हैं। इनमें किराना कारोबारी, नाई, धोबी, मोची, जुलाहा, दर्जी, सफाईकर्मी सभी होते है। शहर का आभिजात्य वर्ग भी नाटक में सहयोग करता है। नाटक को संयोजित करने में स्व. चांदमल राम की प्रमुख भूमिका रही, लेकिन उनका निधन होने के बाद मंचन में पहले जैसी कसावट नहीं रही।
रात दस बजे कलाकार सीधे कंस चबूतरे पहुंचेगे : भावसार
कंसवधोत्सव समिति के तुलसीराम भावसार का कहना है कि पूर्व में बालवीर हनुमान मंदिर से ट्रक ट्रालियों तथा घोड़ों पर सवार नाटक के पात्र जुलूस की शक्ल में आजाद चौक पहुंचते हैं, जहां संवाद होते हैं। बाद में कंस चबूतरे के नीचे भी संवादों की अदायगी के बाद कृष्ण बने पात्र द्वारा कंस के पुतले को जमीन पर गिरा जाता है। लेकिन कोरोना के कहर को ध्यान में रखते हुए इस बार जुलूस नहीं निकाला जाएगा। रात दस बजे कलाकार सीधे कंस चबूतरे पहुंचेगे, जहां वाकयुध्द के बाद श्रीकृष्ण की भूमिका कर रहा पात्र कंस के पुतले को 24 नवंबर की रात ठीक बारह बजे मंच से नीचे गिराएगा।
गवली समाज के लोग पुतले को पीटते हैं लाठियों से
पुतले को गवली समाज के लोग लाठियों से पीटते हुए अपने मोहल्ले में ले जाएगे। इस समाज के लोगों का दावा है कि श्रीकृष्ण यादववंशी गवली रहे हैं, इसलिए कंस के पुतले पर उनका पहला हक बनता है।
बाबू धाकड़ की भूमिका है याद
साठ-सत्तर के दशक तक शहर के ठेकेदार बाबू धाकड़ की राक्षसी भूमिका को लोग आज भी नहीं भूले हैं। मजबूत और विशाल कदकाठी के मालिक बाबू धाकड़ जब ड़ोरेदार आंखें, रूआबदार मूंछों के साथ तलवार लपलपाते भूमिका में उतरते तो भय के मारे लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे और कई तो नालियों में जा गिरते थे। लगता जैसे असल राक्षस सड़क पर घूम रहा हो। नगर की जनता उन्हें ठेकेदार होने के बजाए कम इस नाटक में भूमिका की वजह से ज्यादा जानती थी। बाबूभाई जैसा राक्षस शाजापुर की नाट्य प्रेमी जनता को दूसरा नहीं मिला।
दिवंगत कलाकारों को करते हैं याद
इस नाटक पर पारसी थिएटर की अमिट छाप है और उसी के अनुरूप कलाकारों की भड़कीली पौषाखें होती हैं। इस नाटक को जीवंत बनाने में चंादमल राम, व्दारिकाधीश बजाज, हजारीलाल गुप्ता, द्वारिकाधीश रोडलेवा, वीरेंद्र व्यास, पुरूषोत्तम चंद्रवेशी की प्रमुख भूमिका रही है। नाटक के दिवंगत कलाकार स्व. प्रेमनारायण गुरू, पुरूषोत्तम टंडन, कोदरमल, मुन्नालाल हरलाल काछी, रणछोड़ भेरवा, गोवर्धन तेली को उनकी सशक्त भूमिका एवं संवादों के कारण आज भी याद किया जाता है। स्व. किशोरीलाल नाई लगभग 40 वर्षो तक बजरंगबलि की भूमिका में उतरते रहे। इतना होने के बाद भी इस नाटक को शासन का संरक्षण नहीं मिल सका। बेहतर होता इस नाटक से संबंधित आधिकारिक जानकारियों को समेटती हुई पुस्तक लिखी जाती।
स्वतंत्रता संग्राम में नाटक की भूमिका
आजादी की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ इस नाटक ने युवाओं में जोश भरा। अंग्रेजों के जमाने में शाजापुर का इलाका सिंधिया शासकों की रियासत था जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर अत्याचार करते थे। उस दौरान इस शहर के भी अनेक लोग जेलों में ठूसे गए। ऐसे में यह नाटक जन अभिव्यक्ति का प्रमुख जरिया बना। संवाद इस प्रकार लिखे जाते थे कि सिंधिया शासक समझ नहीं सके। नाटक का स्वरूप ऊपर से धार्मिक होता था, ताकि अंग्रेजों के पिट्ठू सिंधिया शासन को समझ में नहीं आए। उन दिनों कंस ब्रिटिश और सिंधियाशाही के प्रतीक वहीं श्रीकृष्ण एवं उनकी सेना स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रतीक बन गए। कंस के पुतले को जो टोपी पहनाई जाती थी, वह सिंधियाशाही नाव के आकार की तिकौनी होती थी। आज भी टोपी के स्वरूप में बदलाव नहीं हुआ है।
नाटक को संरक्षण देने की मांग
मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की शाजापुर जिला इकाई के संरक्षक डॉ. दुर्गाप्रसाद झाला, डॉ. एलएन व्यास, डॉ. बसंतकुमार भट्ट, डॉ. जगदीश भावसार, माणकचंद नारेलिया, संयोजक डॉ. नरेंद्र गौड, संतोष शर्मा, साजिद रईस वारसी,रियाज बैतकल्लुफ तथा कैलाश गौड़ ने मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग से मांग की है कि कंस वधोत्सव नाटक को संरक्षित किया जाए। प्रतिवर्ष इस नाटक का मंचन शासन के संरक्षण में किया जाए एवं एक आधिकारिक पुस्तक का प्रकाशन भी किया जाए।