संवेदनशील अभिव्यक्ति के लिए जाना जाता था कवि मंगलेश डबरालजी को
कवि मंगलेश डबराल के गुज़र जाने के साथ ही समकालीन साहित्य से ऐसे कवि की रिक्तता हो गई जिन्हें संवेदनशील अभिव्यक्ति के लिए जाना जाता था। कवि मंगलेश डबराल की कविताएं गहरे अर्थों के साथ सामान्य से विषयों में गुथी हुई इस कदर पेश होती थी की वे बरबस अपने भीतर तक पहुंच जाती थी। उनकी कई कविताएं बोलती हुई महसूस होती है।
मंगलेश डबराल के पाँच काव्य संग्रह प्रकाशित हैं- पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है और नये युग में शत्रु। इसके अतिरिक्त इनके दो गद्य संग्रह लेखक की रोटी और कवि का अकेलापन के साथ ही एक यात्रावृत्त एक बार आयोवा भी प्रकाशित हैं।
दिल्ली हिन्दी अकादमी के साहित्यकार सम्मान, कुमार विकल स्मृति पुरस्कार और अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना “हम जो देखते हैं” के लिए साहित्य अकादमी द्वारा सन् 2000 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित मंगलेश डबराल की ख्याति अनुवादक के रूप में भी रही। मंगलेश की कविताओं के भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, स्पेनिश, पुर्तगाली, इतालवी, फ़्राँसीसी, पोलिश और बुल्गारियाई भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित हुए। कविता के अतिरिक्त वे साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के विषयों पर नियमित लेखन भी करते रहे। मंगलेशजी की कविताओं में सामंती बोध एवं पूँजीवादी छल-छद्म दोनों का प्रतिकार है। वे यह प्रतिकार किसी शोर-शराबे के साथ नहीं अपितु प्रतिपक्ष में एक सुन्दर स्वप्न रचकर करते रहे।
मंगलेश जी की कुछ कविताओं के साथ उनका स्मरण
आंसू
पुराने ज़माने में आँसुओं की बहुत क़ीमत थी. वे मोतियों के बराबर
थे और उन्हें बहता देखकर सबके दिल काँप उठते थे. वे हरेक की
आत्मा के मुताबिक़ कम या ज़्यादा पारदर्शी होते थे और रोशनी को
सात से ज़्यादा रंगों में बाँट सकते थे।
बाद में आँखों को कष्ट न देने के लिए कुछ लोगों ने मोती ख़रीदे
और उन्हें महँगे और स्थायी आँसुओं की तरह पेश करने लगे. इस
तरह आँसुओं में विभाजन शुरू हुआ. असली आँसू धीरे-धीरे पृष्ठभूमि
में चले गये. दूसरी तरफ़ मोतियों का कारोबार ख़ूब फैल चुका है।
जो लोग अँधेरे में अकेले दीवार से माथा टिकाकर सचमुच रोते हैं
उनकी आँखों से बहुत देर बाद बमुश्किल आँसूनुमा एक चीज़ निकलती
है और उन्हीं के शरीर में गुम हो जाती है।
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तानाशाह
तानाशाहों को
अपने पूर्वजों के जीवन का अध्ययन नहीं करना पड़ता।
वे उनकी पुरानी तस्वीरों को जेब में नहीं रखते
या उनके दिल का एक्स-रे नहीं देखते।
यह स्वत:स्फूर्त तरीके से होता है
कि हवा में बन्दूक की तरह उठे उनके हाथ
या बँधी हुई मुठ्ठी के साथ पिस्तौल की नोक की तरह उठी हुई
अँगुली से कुछ पुराने तानाशाहों की याद आ जाती है
या एक काली गुफ़ा जैसा खुला हुआ उनका मुँह
इतिहास में किसी ऐसे ही खुले हुए मुँह की नकल बन जाता है।
वे अपनी आँखों में काफ़ी कोमलता और मासूमियत लाने की कोशिश करते हैं
लेकिन क्रूरता एक झिल्ली को भेदती हुई बाहर आती है और इतिहास की सबसे क्रूर आँखों में तब्दील हो जाती है। तानाशाह मुस्कराते हैं, भाषण देते हैं
और भरोसा दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य है, लेकिन इस कोशिश में
उनकी भंगिमाएँ जिन प्राणियों से मिलती-जुलती हैं
वे मनुष्य नहीं होते।
तानाशाह सुन्दर दिखने की कोशिश करते हैं,
आकर्षक कपड़े पहनते हैं,
बार-बार सज-धज बदलते हैं,
लेकिन यह सब अन्तत: तानाशाहों का मेकअप बनकर रह जाता है।
इतिहास में कई बार तानाशाहों का अन्त हो चुका है, लेकिन इससे उन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें लगता है वे पहली बार हुए हैं।
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कवि
कुछ देर के लिए मैं कवि था
फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ
सोचता हुआ कविता की ज़रूरत किसे है
कुछ देर पिता था
अपने बच्चों के लिए
ज़्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ
कभी अपने पिता की नक़ल था
कभी सिर्फ़ अपने पुरखों की परछाईं
कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ
बची रहे रोज़ी-रोटी कहता हुआ।
हरमुद्दा परिवार की ओर से मंगलेश डबराल जी को विनम्र श्रद्धांजलि 🙏