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“कोई भी क्रिया हो एक दिन वह नीरस और यंत्रवत हो जाती है। नवीनता का रस उसमें नहीं रहता। उसमें कुछ नए पेंच निकल आते हैं। एक दिन हरा-भरा पेड़ भी पत्रहीन हो जाता है। उसमें नए पत्ते निकलने को आतुर हो जाते हैं। पुराने समीकरणों से सर्वथा भिन्न नए समीकरण बनने लगते हैं। भावनाओं की तीव्रता कम होने लगती है। सोचने के कोण बदल जाते हैं। दिल के बजाय दिमाग की रोशनी में संबंधों को तोला जाने लगता है। फायदे-नुकसान का गणित सक्रिय हो जाता है। पानी थम जाता है तो सड़ने लगता है।

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” वरिष्ठ कथाकार गोविंद सेन अपनी कहानी के जरिए जीवन के कई सत्य उद्घाटित करते हैं। “दसवी के भोंगा बाबा” गोविंद सेन का हाल ही में प्रकाशित कहानी संग्रह है। इस कहानी संग्रह की एक कहानी “दूसरा बाप” का उक्त अंश रेखांकित करता है कि व्यक्ति के मानस पटल पर कई सारी ऐसी स्मृतियां अंकित रहती है जो जीवन में रच-बस जाती हैं और कभी किसी रचना के जरिए अभिव्यक्त होती है।

नदी बहते हुई कई सारे नए संदर्भों को अपने में समेटती जाती है। कई सूखते सपनों को जीवन की हरितिमा प्रदान करती जाती है। कई पथराई आंखों को नमी प्रदान करती है। स्थिर हो चुके प्रयासों के पत्थरों को लुढ़कना सिखाती है। और यही निरंतरता एक लेखक के जीवन में कई तरह के रचनात्मक दृश्य प्रस्तुत करती है।

गोविंद सेन के इस कथा संग्रह में सोलह कहानियां हैं जो अलग-अलग चरित्रों का चित्रण करती है। एक तरह से कहा जाए तो यह कथा संग्रह उनके जीवन से जुड़े चरित्र चित्रण की शाब्दिक चित्रावली है। उनके जीवन के अहसास, उनके सामीप्य, उनकी अपनी मिट्टी की गंध को यहाँ महसूस किया जा सकता है। उनके इर्द-गिर्द घूमते, कदम से कदम मिलाकर चलते, उंगली थाम कर साथ देते, उनके घर के आसपास टहलते, उनके साथ बस में सफर करते, क्लास रूम में विद्यार्थी बन कर बैठे ऐसे ही कई चरित्र उनकी इन कहानियों में चित्रित हुए हैं।

संग्रह की पहली कहानी ‘लांबू फोतरूं’ से लेकर संग्रह की अंतिम कहानी ‘दसवी के भोंगाबाबा’ में जो चरित्र चित्रित हुए हैं वे कहानीकार की शैली के जरिए हमें अपने आसपास के प्रतीत होते है। जैसे हर गायक का अपना स्वर होता है, हर स्वर की अपनी मादकता होती है, उसी तरह हर कथाकार की अपनी शैली। गोविंद सेन इस मायने में अपनी ज़मीन से जुड़े ऐसे रचनाकार हैं जो अपनी भाषा और शैली की दृष्टि से बहुत संपन्न और धनवान हैं। मालवी-निमाड़ी उनकी रग-रग में बसी हुई है । वे चाह कर भी इन क्षेत्रीय बोलियों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाते।

“मेरा खेत मसाण से लगा है, इसलिए उसे मसाण्या खेत कहते हैं। मोटा खोदरा और खड़खड़िया खोदने का बहाव रुदन जैसा लग रहा था। खोदरो के आस-पास खड़ी सिंन्दियां निश्चल थीं । हवा उनके तने के शल्कों में धंस कर निढाल हो चुकी थी । उनके सिर पर खोड़ियों के हरे कांटेदार छत्र उल्टी तगारियों की तरह रखे थे।” (दसवी के भोंगा बाबा )

इस तरह के कई वाक्यांश इन कहानियों में शामिल हैं जो कहानीकार के स्थानीय पुट, स्थानीय बोली से लगाव और अपनी प्रकृति और परिवेश से जुड़कर रहने की सलाहियत को अभिव्यक्त करते हैं।

गोविंद सेन अपनी इन कहानियों के जरिए एक ऐसे संसार का चित्रण करते हैं जिसमें उनकी अपनी संवेदनाएं हैं, उनके अपने संस्कार हैं, उनके अपने रिश्ते हैं, उनके अपने संबंध हैं, उनके अपने मनोभाव हैं। इन सब के जरिए वे इन कहानियों में मुखरता से अभिव्यक्त होते हैं।

गोविंद सेन की हर कहानी में एक अलग चरित्र पेश होता है। वे उस चरित्र का सूक्ष्म परीक्षण भी करते हैं। उसकी खासियत से रूबरू कराते हैं और उसके जरिए जीवन के उन मूल्यों को भी अभिव्यक्त करते हैं जो एक व्यक्ति के साथ जुड़े होते हैं। उनके चरित्र खुमसिंग, नराण दादा, लग्जरी बाबू ,न्हारसिंग, मोटा भाई और भोंगाबाबा ऐसे ही पात्र हैं जिनके माध्यम से वे ज़िंदगी के अलग-अलग रंग व्यक्त करते हैं।

यद्यपि कहीं-कहीं वे चरित्र के चित्रण में इतने अधिक खो जाते हैं कि मूल कथा से भटकते हुए भी दिखाई देते हैं और पात्र के चरित्र चित्रित करते हुए उसी में उलझ कर रह जाते हैं। फिर भी उनका चरित्र कुछ ऐसी बात कह जाता है जो पाठक के लिए स्मरणीय होता जाता है।

इन कहानियों में स्थानीयता मजबूती के साथ उभर कर आती है। गोविंद सेन ने इन कहानियों के जरिए इस बात को पुख्ता किया है कि अपनी ज़मीन से जुड़ा हुआ रचनाकार बेहतर अभिव्यक्ति दे सकता है।

गोविंद सेन के यहां उनका अपना जनपद है, उनका क्षेत्र है, उनकी भाषा है, उनकी शैली है और यह सब हमारे उसी जीवन के रंग की तरह है जिसे हम जीते हैं । एक महानगर में रहने वाला व्यक्ति अगर किसी कहानी में शिक्षक के लिए ‘गावड़े का मास्टर’ शब्द पड़े तो उसे अजीब नहीं लगेगा बल्कि उसे अपने पुराने दिन याद आ जाएंगे। अपने गांव के पेड़-पौधे, झाड़-खेत , दरिया, बावड़ियाँ, मसान, टीन टप्पर, खोदरा, रपट आदि ऐसे प्रयोग हैं जो गोविंद सेन की कहानियों को समृद्ध करते हैं।

ये कहानियां जीवन के विभिन्न रंगों की तरह हमारे सामने प्रस्तुत हुई है। श्री गोविंद सेन का रचना संसार बहुत विस्तृत है। न सिर्फ हिंदी बल्कि निमाड़ी में भी उन्होंने पुस्तकें लिखी हैं। उनकी निमाड़ी अभिव्यक्ति इन कहानियों में भी हुई है जहां कई वाक्यांश निमाड़ी में ही दिए गए हैं । यह उनका अपनी बोली से प्रेम को दर्शाता है।

संग्रह की भूमिका में वरिष्ठ कथाकार भालचंद्र जोशी जी ने यह बेहतर ही कहा है कि ” गोविंद सेन की कहानियां ऐसी खुशियों की ललक से भरी है। इनके पात्र इच्छा और हासिल के बीच दबे कुचले हैं या इस गैप में भटक रहे हैं । दुख के अवकाश में छोटी-छोटी खुशियों को जी कर अगले दिन के लिए ऊर्जा ग्रहण करते हैं । इन कहानियों का एक जातीय स्वरूप है। उनकी आंचलिकता में स्थानीयता का बोध है।”

स्वयं कहानीकार गोविंद सेन भी अपने आत्मकथ्य में इस बात को रेखांकित करते हैं कि “कहानी में जीवन और अपने समय का सच ज़रूर होता है पर वे काल्पनिक होती हैं, किसी पात्र विषय से उनका कोई संबंध नहीं होता । फिर भी कुछ पात्रों ने मुझसे शिकायतें की है कि मैंने उनके बारे में ऐसा क्यों लिखा। कुछ तथाकथित पात्रों ने तो मुझे धमकियां तक दीं। लेखन के चलते कुछ पात्रों से अबोला हो गया। पर ये नाराज पात्र यह समझने की जहमत क्यों नहीं उठाते कि लेखक प्रवृत्ति पर चोट करता है , व्यक्ति पर नहीं या तो उन्हें इन प्रवृत्तियों पर खुद पर लागू नहीं करना चाहिए या उन प्रवृत्तियों को सुधारना चाहिए । यह भी समझना चाहिए कि कमजोरियां किसमें नहीं होती ।”

जाहिर है गोविंद सेन ने अपनी ये कहानियां जीवन के जिन पात्रों पर लिखीं, वे उनके जीवन से वाबस्ता रहे। न सिर्फ बीते कल में बल्कि वर्तमान में भी और आने वाले समय में भी ये पात्र उनके साथ कायम रहेंगे,, ठीक उसी तरह यह कहानियां भी पाठकों के जीवन के साथ जुड़ी रहेगी, चलती रहेगी और यही इन कहानियों की सफलता होगी। गोविंद सेन का यह कहानी संग्रह नई कहानी के क्षेत्र में कई सारी उम्मीदें भी जगाता है और आश्वस्त भी करता है।

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पुस्तक- दसवी के भोंगाबाबा (कहानी संग्रह)

कथाकार- गोविन्द सेन

प्रकाशक- लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ

पृष्ठ संख्या- 104

मूल्य- 150/-

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समीक्षाकार : आशीष दशोत्तर
12/2, कोमल नगर, बरवड़ रोड
रतलाम-457001

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