जब प्रदेश मुखिया ने की उनके “कद की कद्र”, तब सांप लौट गए “उनके” सीने पर
हेमंत भट्ट
रतलाम। यह तो सर्वविदित है कि माई के लाल को ललकारने के बाद कुर्सी से दूर वाले शिवराज को फिर से मुखिया बनने का मौका मिल गया तो रतलाम की याद आई, माई कालिका के आशीर्वाद लिए। वे काफी समय रतलाम में रुके। मुख्यमंत्री के दौरे के दौरान जहां “कद की कद्र” हुई वहीं ओहदे का अपमान भी हुआ।
नगर निगम के बैनर तले डोसी गांव में आयोजित लोकार्पण और भूमि पूजन के आयोजन में जब मुख्य अतिथि प्रदेश के मुखिया ने भाजपा के कद्दावर नेता हिम्मत कोठारी के “कद की कद्र” की और उन्हें तवज्जो देते हुए आगे बुलाया तो “उनके” सीने पर सांप लोट गए। ख़री-खरी कहते हुए मुख्यमंत्री ने मेडिकल कॉलेज की उपलब्धि को जब पूर्वमंत्री के खाते में डाला, तब तो “उनका” चेहरा देखने लायक था। खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे भी तो आखिर कैसे? सभा में मौजूद भाजपा को चाहने वालों के चेहरे “कमल” की तरह खिल गए। और उनके यहां “हाजरी” देने वालों के चेहरे पर शिकन आ गई कि आखिर यह क्या हो गया? “नाचे कूदे कोई और, खीर खाए फकीर” की कहावत चरितार्थ हो गई। सभा में दूर तक बैठे लोगों ने मंच पर लगी एलईडी पर उनके चेहरे के हाव भाव देखकर तत्काल भाप लिया कि वार तगड़ा हो गया है। फिर क्या था “सच का सीना” भी गर्व से चौड़ा हो गया।
आमंत्रण पत्र की दोबारा छपाई बन गई चर्चा का मुद्दा
भाजपा की परंपरा रही है कि जनप्रतिनिधियों की बजाए, भाजपा के पदाधिकारी को ही तवज्जो मिलती है लेकिन रतलाम में मुख्यमंत्री के आयोजन के कुछ घंटे पहले ही राजनीति में कुछ ऐसा खेल खेला गया कि भाजपा के जिला अध्यक्ष का नाम शहर में बटने वाले आमंत्रण पत्र से एकाएक गायब हो गया। जबकि आमंत्रण पत्र में उनका नाम छापा गया था लेकिन वे सभी रद्दी की टोकरी में फेंक दिए गए और नए सिरे से आमंत्रण पत्र छपे और बटे जिसमें जिलाध्यक्ष को गौण कर दिया गया। यह मुद्दा शहर भर में चर्चा का विषय बन गया कि आखिर ऐसा हुआ तो क्यों? सफाई है दी जा रही है कि शासकीय आयोजन में जिला पदाधिकारियों के नाम प्रकाशित नहीं होते हैं। खैर, जो भी धन का धूला तो हुआ ही है।
खुली आँखों के सपने कैसे होंगे साकार
मुख्यमंत्री के डोसीगांव में हुए मुख्य आयोजन में जनप्रतिनिधि बनने की उम्मीद में कई सारे उम्मीदवार खुली आंखों से देखे गए सपने को लेकर मौजूद थे। सब अपनी अपनी हैसियत, प्रभाव और दबाव के बल पर जगह पाने में मशक्कत करते देखे गए। महापौर के ख्वाब को लेकर कोई मंच पर स्थान पा गया तो कोई जमीन तक पर बैठ गया। हालांकि महापौर और पार्षद बनने के ख्वाब सजाने वाले कुछ तथाकथित समाजसेवी जिनका समाज सेवा से कोई दूर दूर तक का नाता नहीं है। हां, “मेवा” से जरूर मतलब रखते है। साथ ही ना तो उनका ऐसा चरित्र रहा कि वे जनप्रतिनिधि की दौड़ में आगे बढ़ सके और न ही काबिलियत है। ऐसे “मुंगेरीलाल के हसीन सपने” कैसे साकार होंगे, यह कहना मुश्किल है? पैसा है मगर सामाजिक प्रतिष्ठा के रिपोर्ट कार्ड में उनके अंक डबल जीरो से कमतर नहीं है।
यह कैसा पद और कैसी हैसियत
लोकार्पण और भूमि पूजन के पत्थरों में भाजपा के जिला अध्यक्ष का नाम जरूर था लेकिन पद नहीं। पद पूर्व संचालक जिला सहकारी बैंक दिया गया था, ऐसा पहली बार हुआ है। जबकि भाजपा के पूर्व मंत्री भी थे, उनका नाम भी दे सकते थे। और भी ताजातरीन पूर्व संचालक थे, तब तो वे भी नाम पा सकते थे। यह कौन सी परंपरा शुरू हुई? क्यों हुई ? इसके पीछे की राजनीति समझ से परे है। जबकि भाजपा के और भी विधायक राजेन्द्र पांडेय व दिलीप मकवाना थे, जिनके नाम दे सकते है। अब तक वर्तमान विधायको के नाम देने कि परम्परा भी रही है।
जमीन से ही नहीं अपनों से दूर हो रहे हैं मास्टरजी
मास्टर के ओहदे से जनप्रतिनिधि बनने तक के सफर को तय करने वाले मास्टर जी धीरे-धीरे जमीन से ही नहीं अपितु अपनों से भी दूर हो रहे हैं। राजनीति के रंग में और पद के प्रभाव में इतने मगरूर हो गए हैं कि वे अपनों को ही नजर अंदाज करते जा रहे हैं। भाजपाई, ग्रामीणजन और उनको चाहने वाले उस समय फूले नहीं समाए थे, वे चुनाव जीत गए थे।
उस समय यह भी कहा गया था कि “बिल्ली के भाग से छींका फूट” गया। समय बढ़ने के साथ ही उनकी सामाजिक दूरियां भी बढ़ने लगी। और वे चाहने वालों की आंखों की किरकिरी बनने लगे हैं। ग्रामीणों को फिर धूलजी बा याद आने लगे हैं कि जनप्रतिनिधि तो ऐसा होना चाहिए। लोग तो कहने लगे हैं कि एक चेहरे पर न जाने कितने चेहरे सजाने लगे हैं वे। मास्टरजी का यह रवैया तो राजनीति में गड्ढे की ओर ही ले जाएगा। तब कोई अपना नहीं आएगा, गड्ढे से उबारने के लिए। क्योंकि वे कद बढ़ाने की बजाय उसे छोटा करने पर आमादा है।