गीतकार आशीष दशोत्तर का गीत “चलो इस बार होली में”
आशीष दशोत्तर
कई फागुन गुज़ारे हैं सहन कर दंश नफ़रत के
चलो इस बार होली में बिखेरे रंग उल्फ़त के।
उड़ाएं कोई ऐसा रंग जो नज़दीक लाता हो
दिलों की दूरियों को जो, जड़ों से ही मिटाता हो
सिखाता हो जो हरदम आदमी को इश्क की बातें
जो लाता हो सुनहरे दिन सुहानी फिर वही रातें
कहीं मिल जाए ऐसा रंग तो मल दीजे माथे पर
बुराई को मिटा दें हम सभी अपने ही बूते पर
सुनाई दे नहीं सकते कहीं फिर गीत नफ़रत के
चलो इस बार होली में बिखेरे रंग उल्फ़त के।
सुलग कर हर समय होली यही पैग़ाम देती है
बुराई की न होती कद्र ना ही उम्र होती है
किसी की राह में कांटे उगाना क्या भलाई है ?
कहीं अवरोध बनने में कहो कैसी बड़ाई है ?
अगर करना ही है कुछ तो चलो ऐसा किया जाए
दिलों से रंजिशों के दाग़ को अब धो दिया जाए
खिले ‘आशीष’ अब तो फूल गुलशन में मुहब्बत के,
चलो इस बार होली में बिखरे रंग उल्फत के।