अगर रुपयों की खातिर, दवाई वाला दवाई छुपा ले, अस्पताल वाला बेड, ऑक्सीजन वाला ऑक्सीजन, प्रकृति ऐसा करे तो कितना खौफनाक होता मंज़र
त्रिभुवनेश भारद्वाज
जिंदगी
सबका हक है
अगर कुछ रुपयों की खातिर
दवाई वाला दवाई छुपा ले
अस्पताल वाला बेड छुपा ले
ऑक्सीजन वाला ऑक्सीजन
एम्बुलेंस वाला टायर पंचर बता दे
और आकाश देखते देखते
सीने को दबाकर
कोई मजबूर तोड़ देता है दम सड़क पर
तो फ़र्ज़ अदा करने से बचने वालों
तुम्हारी खैर नहीं
क्योंकि यही घड़ी थी
तुम्हारी परीक्षा की
जब वो नारायण देख रहा था
तुम अंदर से कितने ज़िंदा हो
अगर तुम उसके एंटीजन टेस्ट में
निकले मरे
तो वो तुम्हें अपनी सभा में
मरा हुआ घोषित कर देगा
कितना खौफनाक होता मंज़र
जब बादल अपना पानी पी जाता
हवा खुद मस्त होकर
प्राणों के परिवहन से इनकार कर देती
मिट्टी बीज खा जाती
पेड़ ठहाका मारकर अपना ही फल खा जाते
डालियां फूल निगल जाती
झरने धूल उड़ाते
सूरज कभी कभी तड़ी मार जाता
पूनम को चाँद आता ही नहीं
निसर्ग का समूचा तंत्र
कर्तव्य बोध से आप्लावित है
परमार्थ भाव से परिचालित है
समर्पण से प्रकृति करती नित्य
अपना काम
निःशुल्क सेवा
नहीं कोई दाम
प्रकृति की कृति मनुष्य
खुदगर्ज और बेईमान क्यों?
उसका निजाम आपाधापी
नहीं है स्वीकारता
वो ढूंढ ढूंढ कर हर पल
बेईमानों को है मारता
उसकी नज़र से कोई दूर नहीं
उसे अत्याचार मंजूर नहीं
विशेष (वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लिखी रचना, शब्द संरचना मात्र नहीं अपितु मौजूदा दृश्य की अभिव्यक्ति के साथ अनर्थ की जोरदार भृर्तस्ना करती कविता)