दुर्योधन की एक और नाकाम चाल
संजय भट्ट
गुरू द्रोणाचार्य दुर्योधन की अनर्गल हरकतों से इस बार फिर परेशान थे। गुरूमाता ने कहा यह दुर्योधन ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो सभी को नुकसान पहुॅचा सकता है। दुर्योधन का उद्देश्य मात्र पांडव और उनमें भी भीम को नुकसान पहुॅंचाने का था, यह सभी को पता था। पांडव भी इससे भली भांति वाकिफ थे कि दुर्योधन कभी भी नुकसान कर सकता है। इस बात को लेकर द्रोणाचार्य ने दुर्योधन को समझाया, तुम कौरव वंश के प्रमुख राजकुमार हो। तुम्हारा उच्छृंखल स्वभाव निश्चित ही सभी के लिए नुकसान देह साबित हो सकता है। सभी को गुरूकुल से बाहर घुमने पर पाबंदी है तथा इस पाबंदी का एलान स्वयं महाराज धृतराष्ट ने किया है।
दुर्योधन इन सभी बातों को न कभी माना था और न कभी मानेगा, यह जानते हुए भी गुरूजी ने अपनी समझाईश का दायित्व पूर्ण किया। दुर्योधन को विश्वास था कि वह कभी भी अन्य क्षेत्रों में भ्रमण कर कहीं भी आ जा सकता है। गुरूदेव का काम समझाने का था वह पूर्ण हो चुका है। वे कभी भी मेरी शिकायत महाराज से नहीं करेंगे। महाराज भी जानते थे, उनके आदेश का पालन सभी राजकुमार कर सकते हैं, लेकिन दुर्योधन अपने मामा तथा माता दोनों का लाड़का है वह किसी की भी नहीं मानेगा।
इतना सब हो जाने के बाद महाराज का सारा प्रशासन न सिर्फ हस्तिनापुर बल्कि सुदूर देशों में फेली महामारी से अपनी प्रजा के प्राणों को बचाने में नाकाम सिद्ध हो रहा था। इसमें भी दुर्योधन ने सोंचा यदि सभी पांडव राजकुमार भी इस महामारी की चपेट में आ जाए तो निश्चित ही उनकी मौत हो सकती है तथा उसके युवराज बनने के सारे रोड़े हट सकते हैं। यही सोंच उसने गुरूकुल से निकल कर अपने मामा शकुनी से संपर्क किया। शकुनी ने भी पांसों को फेंक कर देखा और बोला-‘ भानजे यह योजना तो ठीक है, लेकिन इसमें रिस्क भी है’ फिर भी नो रिस्क नो गेम। चलो यही करके देखते हैं। अपनी मरती प्रजा में से एक आदमी को मरने के लिए ढूॅंढना कोई खास बात नहीं थी। यह बात कर्ण को पता चली तो उसने हमेशा की भांति रोकने का प्रयास किया, लेकिन दुर्योधन ने दुःशासन की मदद से एक आदमी को तलाश ही लिया जो उनके लिए पांडव राजकुमारों के साथ खेलें तथा उनको भी महामारी के रोग से ग्रसित कर दे।
उस समय की कोई बात श्री कृष्ण से छिप नहीं सकती थी। उनको पता चला कि महामारी की चपेट में लेकर पांडवों को मारने की योजना दुर्योधन और शकुनि ने मिल कर बना ली है। उन्होंने युक्ति सोंची कि कैसे पांडवों को इस महामारी से बचाया जाए, किसी के संपर्क में आने से रोका जाए। उन्होंने पांडवों के चलित पुतले बनवा दिए। यह बात दुर्योधन को पता ही नहीं चली उसने व्यक्ति को पांडवों की शकल सुरत बता कर उनके साथ खेल कर उन्हें महामारी की चपेट में लेने का आईडिया दे दिया।
गुरूकुल से भोजन के लिए जंगल में लकड़िया लेने पहॅुचे पांडवों को उस व्यक्ति ने खेल की चुनौति दी। पांडवों ने अपनी राजसी परंपरा के अनुरूप चुनौति को स्वीकार कर लिया। अब बारी श्री कृष्ण की थी। उन्होंने माया से पांडवों को गायब कर उनकी जगह पुतलों को खेल में स्थान दे दिया। उस व्यक्ति ने दुर्योधन के निर्देशानुसार पांडवों के पुतलों को महामारी की चपेट में लेने के लिए छू लिया। अब दुर्योधन को विश्वास हो गया था कि मामा श्री के साथ मिल कर बनाई चाल कामयाब हो गई है तथा उसके युवराज बनने के सभी मार्ग खुलने वाले हैं।
इन सब के बीच वह एक गलती कर बैठा था। उसने जिस व्यक्ति को पांडवों को महामारी से पीड़ित करने भेजा था, कामयाबी की खुशी में उसे ही गले लगा बैठा। अब इधर पांडवों को इसकी खबर मिली तो उन्होंने एक पखवाड़े के लिए जंगल में ही डेरा जमा लिया। गुरूजी परेशान थे कि पांडव गायब हो गए तथा कौरवों के प्रमुख राजकुमार दुर्योधन भी महामारी की चपेट में आ गया। बात महाराज तक पहुॅची तो उन्होंने तुरंत ही राजकुमार के लिए अच्छे वेद का इंतजाम कर दिया तथा गुरूकुल के बाकी लोगों को उससे दूर रहने का फरमान दे दिया। एक पखवाड़े तक लगातार इलाज से दुर्योधन ठीक हो गया तथा पांडव भी लौट आए। श्री कृष्ण ने उपस्थित होकर सभी के बीच मुस्काते हुए राज खोला तो सभी आश्चर्यचकित रह गए। सभी ने समझ लिया था कि महामारी का अगर कोई इलाज है तो वह यह कि सभी दिल से साथ रहे, लेकिन शारीरिक दूरी बना कर रहे। श्री कृष्ण की इस बात को सभी ने समझा तो महामारी फेलने की एक दूसरे से छूने की चैन टूटी और हस्तिनापुर सहित सभी देशों से महामारी ने रूखसत होने में अपना भला समझा।