जिनके लिए बजाई थी ताली और थाली, उनके नुमाइंदो ने जिंदगी नहीं संभाली
🔲 जिये भी साथ, मोक्ष भी एक साथ, एक ही चिता पर लेटकर कह गए अलविदा…
🔲 दो पुण्यात्मा हार गए जिंदगी की जंग
🔲 डॉ. हिमांशु जोशी
जिनके लिए देशभर में थाली बजाई, ताली बजाई, दिए जलाए उन्हीं की ज्योत बुझा दी नाकारा सिस्टम ने। देशभर में इन दिनों यही सब चल रहा है। ना उपचार है। ना ही ऑक्सीजन है। चिकित्सक हैं पर काम करने को तैयार नहीं है। स्वास्थ्य विभाग से जुड़ा पूरा अमला नकारा साबित हो रहा है। व्यक्ति मर रहा है उनको कोई फिक्र नहीं, कोई सहानुभूति नहीं।
12 अप्रैल की वह सुबह जब दीक्षित दंपत्ति रतलाम के शासकीय मेडिकल कॉलेज रतलाम में अपनी सेहत को ठीक करने के लिए पहुंचे थे। गले में मामूली सा दर्द था, सोचा समय रहते चिकित्सा का लाभ ले ले तो जल्द ही स्वस्थ हो जाएंगे। फिर क्या पता था कि वही सोच मृत्यु का कारण बन जाएगी।
बेटे की 10 दिन पहले कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद से सतर्कता तो बरती जा रही थी।सुबह गले में थोड़ा सा दर्द हुआ तो चिंता करते हुए तुरंत एंबुलेंस में बैठकर मेडिकल कॉलेज रवाना हो गए। पर क्या पता था, वही एंबुलेंस यमराज का वाहन बनकर लेने आई थी। प्रभु ने फिर भी एक मौका दिया था कि हम उस वाहन में बैठने से बच जाएं। क्योंकि जब सुबह 7:30 बजे कस्टमर केयर पर फोन लगाया था तो उन्होंने कहा था कि 8:00 बजे बाद फोन लगाना तो हम डॉक्टर से आपकी फोन पर ही बात करवा देंगे। फिर भी हमने कहा नहीं हमें तो मेडिकल कॉलेज में भर्ती कर लो।
बस निकल पड़े थे, उस यमराज के वाहन में मेडिकल कॉलेज की ओर। 7:45 पर जब मेडिकल कॉलेज में पहुंचे, तो लगा था कि दीक्षित दंपति अब जिंदगी की जंग जीत जाएंगे। कागजी कार्रवाई होने लगी और उन्हें चेकअप के बाद एच डी यू वार्ड में भर्ती कर लिया। डॉक्टर से पूछा कि कोरोना का नहीं है? डॉक्टर ने कहा अभी टेस्ट हुआ है, उसकी जांच रिपोर्ट आने पर ही पता चलेगा। राजकुमार जी दीक्षित थोड़े नाराज थे कि मुझे क्यों अस्पताल ले आए, मैं तो ठीक हूं ? पर अपनों की जिद थी कि नहीं हम आपको बिल्कुल स्वस्थ करवा देंगे। नाराज होकर भी क्या करते हैं क्योंकि उनको तो अपनों की माननी ही थी। डॉक्टर ने लगाया ऑक्सीजन मास्क तो लगने लगा के अब जल्दी ही माँ-बाप जो धरती पर भगवान का रूप है, ठीक होकर घर पहुचेंगे। पर क्या पता था वही ऑक्सीजन मास्क भी जान जाने का कारण बन जाएगा। सभी अपने करीबी जगह-जगह फोन लगाने लगे। अपने को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करने लगे। करीब 3 घंटे बाद पता चला कि उन्हें 4 लीटर ऑक्सीजन पर रखा गया है।
वह भी जुगाड़-तुंगाड में जानकारी प्राप्त कर ली नहीं तो यहां जानकारी देने वाला भी कोई नहीं। यहां आकर पता चला कि मरीज के परिजनों को 2 से 3 दिन तक तो पता ही नहीं चलता कि उनके मरीज कहां हैं और कैसे हैं? अब मन थोड़ा सा घबराने लगा था कि यहां ऐसा सिस्टम है तो कैसे अपनों की खैर खबर लेंगे ? पर स्वयं ही हम उस डर को दबाने लगे कि नहीं ऐसा नहीं होगा। कम से कम इतनी अंधेरगर्दी तो नहीं होगी। कोई तो सुनेगा, कोई तो हमें बताएगा कि हमारे परिजन कैसे हैं ? सरकार इतना प्रचार-प्रसार करती है कि अस्पतालों का सिस्टम बहुत अच्छा है। यहां मरीजों की बहुत केयर होती है। टीवी में देखा था के मरीज के ठीक होकर घर आते हैं और अपने परिजनों से फिर खुशी-खुशी मिल जाते हैं। मन में डर भी घर बनाने लगा था। एक तरफ सुकून भी था कि हम सही समय पर आ गए हैं तो इस कोरोनावायरस दुश्मन को हराकर जिंदगी की इस जंग को जीत जाएंगे।
दोपहर होते-होते घरवाले पूछने लगे थे कि अब क्या स्थिति है ? दोनों कैसे हैं ? पर पता करें तो कैसे करें? क्योंकि उस मेडिकल कॉलेज में ना तो कोई हेल्प डेस्क था ना कोई ऐसा फोन नंबर था जिस पर जानकारी ले सके। फिर भी उम्मीद थी कि वहां जाकर डॉक्टर जानकारी देंगे। गाड़ी उठाई और चल पड़े मेडिकल कॉलेज में मरीज के हाल-चाल पूछने। पर यहां का नजारा ही अलग था ना कोई हेल्प डेस्क दिखा ना कोई ऐसा व्यक्ति जो हमें जानकारी दे पाए। फिर भी पूछने की कोशिश की। यहां पर बैठे हैं स्टाफ के लोगों से पूछा तो जवाब मिला ठीक होंगे, यहां आ गए हैं तो ठीक हो ही जाएंगे। मैंने पूछा कि दोनों मरीज किस वार्ड में है तो कहने लगे यह तो हमें पता नहीं।
मरीज से फोन करके पूछा तो उन्होंने इतना तो बताया था कि ऑक्सीजन मास्क लग गया है चूंकि मरीज बुजुर्ग थे तो पता नहीं कर पाए कि वह किस वार्ड में है। मन में डर बनने लगा कि यह कैसा स्टाफ है जो मरीज की जानकारी नहीं दे रहा हैं। मरीज से फोन पर बात हो रही थी, तब भी जिंदगी ने एक और मौका देने की कोशिश की। मरीजों ने फिर कहा कि हमें यहां से घर ले जाओ यहां पर हम मर जाएंगे। फिर उन्हें समझाने का प्रयास किया, यहां तो जिंदगी मिलती है, यहां तो मौत को हराया जाता है। हिम्मत ना हारे। हम जिंदगी की यह जंग जीत जाएंगे। जिंदगी के मिले, उस मौके को मानो जैसे फिर ठुकरा दिया हो। आनन-फानन में सभी दूर फोन लगाने लगे। सोचो बड़ा जेक लगेगा तो थोड़ी सुविधाएं बढ़ जाएगी। पर क्या पता था यहां का सिस्टम ही वेंटिलेटर पर है, जिंदगी की मानो यहां कोई कीमत ना हो।
रोज 30 से 40 मौतें होती दिख रही है, जो सरकारी आंकड़ों में दो या तीन ही दिखाई जाती है। अब तक जो सुना था, वह दिखने लगा था। सिस्टम की कमियां उजागर होने लगी। फिर भी हमने सोचा कि हमारा पेशेंट तो नॉर्मल ही है, ठीक होकर जल्दी घर आ जाएगा। डॉक्टर से पूछना चाहा कि रिपोर्ट आई क्या तो जवाब मिला, अभी तो नहीं आई। अब जुगाड़ जुगाड़ से मरीज के वार्ड की जानकारी मिल गई। बेड नंबर का पता हो गया। कुछ अपनों को फोन पर यह जानकारी नोट करवा दी जिससे अभी से उनके स्वास्थ्य की स्थिति पता चल जाए।
पहले दिन से लेकर हर समय मेरे मित्र जो मेरे साथ लगा रहा। किसी भी समय फ़ोन लगाने पर तत्काल मेरे साथ हो लेता। इस संकट के समय मित्र सौरभ पाठक ने मानो ठान लिया कि हम सास, ससुर और साले साहब को कुछ नहीं होने देगा। हर संभव मदद के लिए तैयार रहने वाला सौरभ पाठक मुझे हिम्मत भी देने में कोई कसर नही छोड़ता। सभी मित्रो को जिन्हें जानकारी थी, मदद के लिए फ़ोन आने लगे। सभी पत्रकार साथी हिम्मत देने लगे।
शाम होने लगी थी, तभी अस्पताल में गोविंद काकानी भैया दिख गए। देख कर थोड़ी खुशी हुई और उन्हें कहा मेरे सास-ससुर यहां एडमिट हो गए हैं। उन्होंने कहा चिंता मत कर मेरे भाई और शर्ट की जेब में हाथ डालकर कुछ कागज निकाले और उसपर लिखे नाम दिखाए और कहा देखो राज कुमार दीक्षित और प्रकाश दीक्षित ही है न। मैंने नोट कर लिया था, जब तुम्हारा सुबह फोन आया था। चिंता मत करो, मैं ऊपर जाऊंगा उन्हें सकारात्मक बातें बताऊंगा और जल्दी से वह ठीक होकर घर आ जाएंगे। उन्हें मैंने वार्ड नंबर बताया और निवेदन किया कि आप उनके स्वास्थ्य की जानकारी बताना।
कुछ देर उनसे बात करता रहा और थोड़ी देर बाद वह अस्पताल के अंदर चले और मैं अपने घर की ओर। रात होते होते जानकारी मिली कि दोनों ठीक है। पर ससुरजी नाराज है, उन्हें वहां अच्छा नहीं लग रहा। उनका कहना था यहाँ जिंदगी नहीं दिख रही है। थोड़ी नाराजगी चेहरे पर दिखाई दे रही थी। उन्हें समझाया कि ये सरकारी अस्पताल है। यह सरकार सभी का ध्यान रखती है। पर क्या पता था, ये अस्पताल उनके लिए यमराज का घर बन जाएगा।
रात होते-होते मेरे साले को भी सांस लेने में दिक्कत होने लगी। सैचुरेशन 91 आने लगा। बस वही राय तुरंत मेडिकल कॉलेज में आ जाओ और भर्ती हो जाओ। यहां पर सब ठीक हो जाएगा। एंबुलेंस आई। एंबुलेंस में बैठकर मेडिकल कॉलेज पहुंचे। यहां पर उन्हें ऑक्सीजन के लिए इंतजार करना पड़ा। जैसे तैसे जुगाड़ लगवा कर ऑक्सीजन की व्यवस्था तो हो गई, पर जगह नहीं होने के कारण एक कोने में ऑक्सीजन लगा कर बैठा दिया। 2 घंटे बाद बेड की व्यवस्था हो गई। किस वार्ड में व्यवस्था हुई इसकी जानकारी किसी के पास नहीं। हेल्प डेस्क में पता करना चाहा तो उनका तो एक ही जवाब का हमें पता नहीं। मरीज को फोन किया तो ऑक्सीजन मास्क लगा होने के कारण ठीक से बात समझ नहीं आई। कुछ सुनने समझने की कोशिश की तो पता चला कि मरीज को नहीं पता कहां लेकर आए।
जैसे तैसे रात निकाली। अगले दिन सुबह मरीज को फोन लगाया और कहा कि किसी से पूछो कि यह कौन सा वार्ड है तो पता चला। इतना तो पता चला कि कौन से वार्ड में किस बेड पर है। सुबह सिस्टम से लड़ाई लड़ने के लिए मेडिकल कॉलेज की ओर कूच किया।
यहाँ हेल्प डेस्क नाम से मुसीबत डेस्क बना रखा था। जहाँ हर कोई परेशान होकर सिर्फ सिस्टम को कौस रहा था। हेल्प डेस्क वालो का कहना था उन्हें ही कोई जानकारी नहीं मिल रही तो वो परिजनों को क्या बताएंगे? घंटो लाइन में खड़े रहने के बाद जब हेल्प डेस्क पर नम्बर आता है तो पता चलता है कि यहाँ उनके पास कोई जानकारी ही नहीं है। परेशान परिजन अगर हंगामा करें तो उनको कानून की धमकी दी जाती है। पर यहाँ उनके साथ ही भद्दा मजाक होता है तो जिम्मेदारों पर कौन सा कानून लगेगा। इसकी शिकायत डीन मैडम को की। पर डीन मैडम के पास समय कहा रहता है। उनकी जब मर्जी होती है, तब वो एक चक्कर लगा लेती है। फ़ोन किया तो कट कर दिया। मैसेज किया कोई रिप्लाई नहीं आया। कोई जिये या मरे उन्हें क्या फर्क पड़ना था। पर वो ये भूल गई थी कि ऊपर वाले को सब जवाब देना पड़ेगा।
मैंने ठान लिया था जितनी ऊपर तक शिकायत हो सकेगी करूंगा। सिस्टम ठीक करवाना है। मरीजों के परिजनों को जानकारी के लिए भटकते देख बहुत दुख भी हो रहा था। 3 घंटे बाद मरीज की जानकारी के लिए डॉक्टर से मिलने गया। जाते से सबसे पहले पूछा सर रिपोर्ट आई क्या ? डॉक्टर ने लिस्ट मैं नाम देखा और कहा नहीं इनकी रिपोर्ट आज तो नहीं आई। शायद कल वल आ जाएगी। मरीज की स्वास्थ्य की जानकारी जाननी चाही तो पता चला की स्थिति ठीक है। मैंने पूछा मरीज खाना खा रहे हैं? तो जवाब था हमें क्या पता। जब अंदर वार्ड में मरीज के पास जाकर देखा तो चौक गया कि मरीज के पैरों के पास में खाने के डब्बे रखे हुए हैं। कुछ डब्बे पैर की टक्कर लगने से नीचे गिर चुके हैं जिन्हें कोई उठाने वाला नहीं दिखा। मैंने जो खाने का डब्बा भेजा था वह उनके पैरों के पास पड़ा था।
सवाल है उन्हें खिलाएगा कौन ????? यदि पेशेंट खाना नहीं खा रहा है तो उसे लिक्विड का पूछने वाला भी कोई नहीं। अरे जब आप लोग खिला नहीं सकते तो मरीज के परिजनों को पीपीई किट पहनकर खिलाने के लिए कह दो। कम से कम उनकी जान तो नहीं जाएगी।
मुझे समझ आ गया और मैंने तत्काल ज्यूस लाकर दे दिया। पर अब समस्या थी मरीजों को ज्यूस पिलाएगा कौन? परिजनों को मरीज के पास जाने देना नहीं है, वहां कोई जूस पिलाने वाला है नहीं, यह समस्या लगभग सभी मरीजों के साथ बनी हुई थी। मन में समझ आने लगा था मरीज कोरोना से नहीं, डर से मर रहे हैं।
मरीजों की जानकारी प्राप्त करने का एकमात्र साधन बना था, मरीजों के पास रखा मोबाइल फोन। मेडिकल कॉलेज के सिस्टम में ऐसा कुछ नहीं था जिससे मरीजों की जानकारी मिल पाए। सास और ससुर के बीच दो पलंग का फासला था। दोनों एक दूसरे को देख सकते थे पर ताकत इतनी कम हो गई थी कि एक दूसरे से बोल नहीं सकते थे। कुछ देर बाद मेरी पत्नी के मोबाइल पर मेरी सासू मां का फोन आता है और कहा जाता है बेटा 2 घंटे से पैशाब आ रही है। यहां बोल रही हूं, पर कोई सुनने वाला नहीं है। जैसे तैसे उन्हें ढांढस बंधाया कि आप चिंता ना करो अभी कोई आ जाएगा। उस समय मन में 100 विचार चल रहे थे कि किसको कहूं? कौन मदद कर पाएगा ? लगने लगा इतने लचर सिस्टम से कैसे लड़ाई लड़ेंगे? कैसे जीतेंगे? एक ओर सास-ससुर को देखना था तो दूसरी ओर साले साहब भी आईसीयू में एडमिट हो गए हैं।
बस यही आलम तीन-चार दिनों तक चलता रहा। डॉक्टर से पूछता रहा रिपोर्ट कब आएगी, डॉक्टर कहते रहे अगले दिन आएगी। आज तो नहीं आई। डॉक्टर को भी क्या पता कि रिपोर्ट तो तब आएगी, जब टेस्ट हुआ होगा। जब 4 दिन बाद कस्टमर केअर पर पता किया तो जानकारी मिली कि इन दोनों का तो कोरोना टेस्ट ही नहीं हुआ। बिना टेस्ट किए ही मुझे रिपोर्ट का इंतजार करवा रहा था, ये सिस्टम।
मरीज पानी के लिए घंटों तड़पता रहता है, वहां पर पानी नहीं पिलाता। क्यों कोई बेल मरीज के पास नहीं थी? अगर उसे कोई तकलीफ हो तो बेल बजा दे। क्यों कोई ऐसा सिस्टम नहीं बना कि मरीज को परेशानी में मदद मिल सके। क्यों हर कोई अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहता है ? डॉक्टर को तो धरती पर भगवान का रूप माना जा रहा है और वह जिंदगी बचाने वाले ही जिंदगी छीनने का काम करने लगे। हालांकि सब ऐसे नहीं है पर जो गिने-चुने ऐसे कुछ लोग हैं जो पूरे सिस्टम को बदनाम किए हुए हैं।
पीपीई किट पहन कर सास और ससुर से मिलने आया उन्हें समझाना था कि खाना खाओ और ज्यूस पियो तो जल्दी स्वस्थ हो जाओगे। ससुर जी ने कहा बेटा 10-10 रुपये के कुछ सिक्के दे जाना। मैंने कहा सिर्फ 10-10 रुपये के सिक्के क्यों? मैंने कहा औऱ दे जाऊंगा तो कहा नहीं सिर्फ 10 के सिक्के या नोट ही चाहिए। बहुत पूछने के बाद पता चला कि यूरिन उठाने के लिए यह 10 रुपये देने पड़ते है ? ये सुनकर ऐसा लगा जैसे दुनिया से इंसानियत ही खत्म हो गई है। मानवता कहाँ गई? मेरी आँखें नम हो गई। मैन दोनों से बात की और उन्हें खाना खाने के लिए समझाया। दोनो ने मुझसे वादा भी किया कि खाना और ज्यूस लेंगे। और मेरे सामने ससुरजी ने टिफ़िन से खाना भी खाया और मुझे कहा आप यहाँ से जाओ और कभी यहाँ मत आना, ये अच्छी जगह नहीं है। सासुमा ने कहा वो बाद में खाना खा लेंगी और दोनों ने मुझे कहा कि अब में यहाँ न आउ, यहाँ कोरोना का संक्रमण है। उन्हें खाना समय पर खाने की समझाइश देकर मैं वहाँ से चला। नीचे जाकर मैंने उन्हें 10-10 रुपए के सिक्के और नोट भिजवाए। मन बहुत दुखी था । मानवता को शर्मसार करने वाली इस बात की शिकायत भी की। पर जिन्हें कुछ नहीं करना वो कुछ नही करेंगे।
17 अप्रैल की शाम को लगभग 6:00 बजे पत्नी के मोबाइल पर सासुमा का फोन आता है। कहती है बेटा पापा तड़प रहे हैं, पापा चिल्ला रहे हैं, फिर भी यहां कोई उनको देखने नहीं आ रहा। कुछ करो बेटा, इनको बचा लो। तुरंत पत्नी ने मुझे फोन किया और अस्पताल में हो रही लापरवाही की जानकारी देकर सासुमा की तकलीफ को बताया। मैंने भी फोन घुमाने शुरू किए, शायद कहीं से मदद मिल जाए। कुछ देर बाद उनके लिए टिफिन लेकर निकला। रास्ते में ही अस्पताल से फोन आ गया। वीडियो कॉल फ़ोन पर दोनों से बात होने की जैसे ही जानकारी मिली मैंने गाड़ी पलटाई और तेज रफ्तार में घर की और चला। घर पहुचते ही पत्नी को आवाज लगाई और वीडियो कॉल पर सास ससुर की बात करवाई। वीडियो कॉल पर सासुमा कह रही थी पहले पापा से बात करो, सासुमा की आवाज में दर्द और डर का आभास हो रहा था। ससुर जी से जैसे ही वीडियो कॉल पर बात हुई। लगने लगा मानो कह रहे हो अब बहुत हुआ जा रहा हूं। कुछ कह नहीं पाए पर एक डर मन में घर बना गया था। वीडियो में देखा वो तड़प रहे है। मुझे कहा गया जल्दी यहां आ जाओ कुछ ठीक नहीं लग रहा है। मैं जल्दी से अस्पताल पहुचा। डॉक्टर ने बताया कि ससुर जी की तबीयत ठीक नहीं है जल्दी आ जाओ। मैं गाड़ी की स्पीड तेज बढ़ाकर चला। जैसे ही हॉस्पिटल पहुंचा। यहां भी 15 मिनट जद्दोजहद करना पड़ी और गेट पर बताना पड़ा के डॉक्टर का फोन आया है और मुझे जल्दी बुलाया है। हेल्प डेस्क वाले यहां 10 मिनट तक डॉक्टर को फोन लगाते रहे । पर किसी का रिप्लाई नहीं मिला। 10 मिनट बाद किसी गार्ड के साथ मुझे मरीजों के वार्ड में भेजा। यहां पर देखा तो ससुर जी अपनी अंतिम सांसे गिन रहे थे। ससुर जी के चेहरे पर बाय पैक लगा हुआ है। मास्क तो लगा हुआ है पर ऑक्सीजन की नली ही निकली हुई है। इसलिए वह तड़प रहे थे, और बुला रहे थे पर कोई मदद के लिए नहीं पहुंचा। यह कैसा हॉस्पिटल है? कैसे मरीजों की देखभाल कर रहा है? यह सब 2 बेड दूर सासू मां बेड पर सब देख रही थी। अपने पति की मदद नहीं कर पाने की पीड़ा कैसे सहन कर रही होगी? दुखों का पहाड़ टूट रहा होगा जब चाह कर भी पति की मदद नहीं कर पा रही होगी। लाचार थी, शक्ति नहीं थी कि उठकर पति के पलंग तक जाए और मदद कर दे। अपनी आंखों के सामने पति को जाते देख बेचैन हो उठी थी। रोज लोगों को मरते देख मन मे डर ने घर बना लिया था। ससुर जी की मौत की खबर सुनकर स्तब्ध हो गया था। आंखों से आंसू निकल आए थे। वहां मौजूद गोविंद भैया ने मुझे संभालने की कोशिश की और हिम्मत दी। सबसे बड़ा संकट था कि यह बात मैं अपने जीवनसाथी को कैसे बताऊं। घर गया और सबसे पहले नहाने गया। जीवनसाथी के मन में कुछ तो शक था। पर मैंने उसे यकीन में बदलने नहीं दिया। नहाने के बाद कपड़े पहन कर मैं पलंग पर बेटा और अपनी पत्नी को पास बैठाया। उससे जो मेरे मन में चल रहा था, उसे शब्दों में बयां नहीं कर सकता। हम दोनों की आंखें एक दूसरे को देख रही थी, कुछ बोलता उसके पहले ही वह समझ गई थी। मैंने कहा पापा चले गए। दुख का पहाड़ उसके ऊपर टूट पड़ा। मेरे कंधे पर सर रखकर रो रही थी। मैंने उसे समझाया कि अभी मम्मी को संभालना है। 15 मिनट के बाद मुझे कहा कि हां अभी मम्मी को संभालना है। मम्मी को फोन लगाया मम्मी ने कहा पापा कहां गए तो पहले मम्मी को समझाया पापा को दूसरे रूम में शिफ्ट किया है। वहां पर ठीक है। पर वह तो उनकी अर्धांगिनी थी। मन से मन का कनेक्शन था। लाख समझाने के बाद भी उनको यकीन नहीं हो रहा था। जैसे तैसे उनको समझा कर सोने का कहा। और हम रात को 3:00 बजे तक बातें करते रहे, पापा की सारी बातें याद करते रहे। रोते रहे, एक दूसरे को समझाते रहे। सुबह 6 बजे मेरी पत्नी अर्चना को मायके छोड़ने जाना था, इसलिए सुबह 5 बजे उठ गए। जाने की तैयारी कर रहे थे, तभी अस्पताल से डॉक्टर का फोन आया की मेरी सासुमा की तबीयत कुछ ठीक नहीं है। जल्दी आ जाओ। मेरे मुंह से निकल गया मम्मी की तबीयत भी ठीक नहीं है। यह सुनकर पत्नी का जैसे सब कुछ खत्म हो गया हो। उस पल में जो पीड़ा हुई, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। मैंने संभलने का कहकर अस्पताल जाने को कहा।
जैसे ही अस्पताल पहुंचा तो सासु मां की मौत की खबर सुनने को मिली। तब समझ में आया कि यह जोड़ी ऊपर वाले ने ही बनाई थी जिसे साथ में जीना था और साथ में ही संसार से विदा होना था। दोनों के चले जाने के बाद भी रेमडेसिविर का खेल खेलने वाले खेलते रहे। दोनों के जाने के कुछ घंटों पहले मैंने उनसे पूछा कि कोई इंजेक्शन लगा है। दोनों ने मना कर दिया था। पर यहाँ कागजो में रेमडेसिविर की कहानी चलती रही। ज्यादा आपत्ति उठाई तो बैक डेट में इंजेक्शन की लगाने की लाइन लिख दी। कोई कहता है रेमडेसिविर लग गया, कोई कहता है लगवाते है। मुझे पता है रेमडेसिविर कोई भगवान नहीं पर, उस रेमडेसिविर इंजेक्शन पर खेल खेलने वाले मरीज की मौत के बाद भी खेल खेलने से बाज नहीं आते। अरे शर्म करो, मरीज के मरने के बाद भी ये खेल उसके नाम से खेल रहे हो।
अभी संकट के बादल छटे नहीं थे। मेरे साले साहब अस्पताल में आईसीयू में एडमिट है, जिन्हें यह खबर नहीं दी जा सकती थी। सासु मां का मानना था अंतिम संस्कार कभी दामाद नहीं करते हैं, नहीं तो बोझ तले दब जाता है। दोनों बेटियों द्वारा ही अंतिम संस्कार करने का निर्णय लिया गया। दोनों बेटियों ने मुखाग्नि दी और पुण्यात्माओं की अंतिम विदाई की। एक ही चिता पर दोनों को भेजा गया। दोनों ही एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ना चाहते है। जिये भी साथ साथ और गए भी साथ। चिता भी एक। दो जिस्म एक जान थे दोनो। मैंने और हम सभी ने उन दोनों को बचाने का हर संभव प्रयास किया पर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ा यह सिस्टम शायद यमराज का दूत बनकर बैठा था।
इस लचर सिस्टम ने झटके में जिंदगियां खत्म कर दी। यह मौत कोरोना से नहीं हुई थी। यह मौत लचर सिस्टम से हुई। यह मौत नहीं हुई है, यह हत्या की गई है। और इसके जिम्मेदार कौन है ???? उस बेटे को जब यह पता चलेगा कि उसके मां-बाप का अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाया क्या गुजरेगी उसके दिल पर ? ऐसे अधिकारी जिन्होंने सिस्टम को बर्बाद कर रखा है, उन्हें अपने पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं है। आज इन अव्यवस्थाओं ने दो जिंदगीया छीन ली। अब आप ही तय करें इसमें किसकी गलती है? कौन जिम्मेदार है?
कौन इन दोनो के हत्या का जिम्मेदार है ?
कौन इस लचर सिस्टम का जिम्मेदार है ?
ये दोनों तो घर से बाहर भी नही जाते, इतनी बड़ी सजा बिना गुनाह किए, कौन जिम्मेदार ?
पूरे सिस्टम पर विश्वास कर इन्हें यहाँ जीवन की तलाश में भेजा था, धोका देकर मौत देने वाला जिम्मेदार कौन ?
हर जगह भ्रष्टाचार, पेशाब करने से लेकर शव को मुक्तिधाम तक ले जाने में भ्रष्टाचारी पैसे मांगने में लगे रहने वालों को सिस्टम का हिस्सा बनाने का जिम्मेदार कौन?
आंखे मूंद सब होने देने वालो पर कौन लगाम लगाएगा?
एक संकल्प : ये जो मेरे साथ हुआ ये किसी ओर के साथ न हो, इस सिस्टम को बदलना है। इस मानवजाति को बचाना है। ये दुख जो देखा कोई ओर न देखे। लचर सिस्टम को ठीक करना है। गुनाहगारों को सजा मिलनी चाहिए। इस मेडिकल कॉलेज को मुर्दाघर बनने से रोकने का हर संभव प्रयास करना है। यहाँ लोगों को मरते देखा है, परिजनों को तड़पता देखा है। बेवजह मरीजो को परेशान होता देख है। अब नहीं, बहुत हुआ। सिस्टम को लचर बनाने वालों को सबक सिखाने का समय आ गया है।