एकान्तोत्सव : किसी उत्सव से कम नहीं एकांत
संजय भट्ट
एकान्त, अकेलापन और सिंगल कुछ ऐसे शब्द है, जिसका जिक्र कई महान लोगों से लेकर आजकल के युवाओं के बीच प्रसिद्ध है। हमारे ऋषि मुनियों तथा वैज्ञानिकों ने अपनी सिद्धि अपने शोध से आविष्कार सभी एकान्त में रह कर हांसिल किया है। एकान्त में की गई तपस्या का परिणाम ध्रुव ने भगवान विष्णु को प्राप्त कर पाया था। अभी यह शब्द आमलोगों के बीच फिर से प्रचलन में आ गया है।
वैसे तो मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा गया है तथा बिना समाज के मनुष्य का कोई उद्धार नहीं है। समाज में रह कर ही मनुष्य समाज के लिए काम करता है और सामाजिक कहलाता है। मनुष्य की सामाजिकता का पैमाना यही है कि वह समाज में क्या काम करता है तथा उसी काम से अपनी पहचान बनाता है। इसी सामाजिकता के गुण के कारण मनुष्य आज अपना अस्तित्व बचाने में सफल हुआ है।
एकान्त में रह कर उत्सव और उत्साह की अनुभूति को प्राप्त करना थोड़ा कठिन है, लेकिन हाल में जो अदृश्य जंग चल रही है, उसमें एकान्त किसी उत्सव से कम नहीं। जीवन की सारी कठिनाईयों के बीच आनंद की अनुभूति जीवन को बचाने में है। कहा गया है कि एकान्त में रहकर व्यक्ति खुद के बारे में सोंचता है, लेकिन विचार करो हम सामाजिक जीवन में कभी खुद के बारे में कितना सोंच पाते हैं।
हमारे शास्त्र कहते हैं, जिसने खुद को पहचान लिया, उसने भगवान को पा लिया। एकान्त में रह कर व्यक्ति जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार करता है। विचार शुन्य होकर वह अच्छा, बुरा कुछ भी पता नहीं कर सकता है, लेकिन विचारवान होकर वह स्वयं के सभी प्रकार के व्यवहार को समझ पाता है।
उच्छृंखल स्वभाव की विद्रोही मानसिकता के कारण उन्हें एकान्त में रहने को मजबूर होना पड़ा तो खुद ही समाज और सोशल नेटवर्किंग से दूरी बना ली। एकान्त ही नहीं नितान्त एकान्त में स्वयं को खोजने की चाह मन में जाग गई। लगातार अपने परायों को खोने का दर्द इतना सता रहा था कि वे बेचैन हो गए। उन्हें संसार से विरक्ति होने लगी। मौका मिला था खुद का एक एनालेसिस कर लेते कि वे क्या है?, समाज के लिए वे जितना करते हैं उसका उनके जीवन में कितना महत्व है? जीवन में वे क्या करना चाहते हैं तथा उस मंजिल के कितने करीब पहुंच गए हैं? ऐसे सवालों ने उनकों घेर लिया था। अब वे निराशा और आशा के बीच स्वयं को फंसा हुआ अनुभूत कर रहे थे।
चूंकि आदमी सामाजिक थे, इसलिए उन्हें लगा कि खुद को पहचान लिया जाए। इसलिए उन्होेंने एकान्त में स्व चिन्तन को अपनाया। जीवन के विभिन्न पहलूओं को परखा तथा पाया कि वे अपनी छवि चमकाने के लिए क्या-क्या नहीं करते हैं! उन्होंने अपने जीवन में कितने कष्ट दिए तथा उनका प्रचार कैसे किया है। वे समाज में प्रतिष्ठित बन जाने के लिए क्या-क्या नहीं करते हैं!
कभी महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चालो’ गीत की रचना की, पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवतावाद का सिद्धान्त दिया तो नए जमाने में कई फिल्मों में अकेले ही सब कुछ कर जाने की प्रेरणा दी। एक फिल्मी गीत है, ‘अकेले हैं तो क्या गम है, चाहें तो हमारे बस में क्या नहीं’ इसी से प्रेरणा पाकर आजकल एकल परिवार की अवधारणा भी आ गई है। बस मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे। वह समय बीत गया जब दादा-दादी, ताउ-ताईजी, चाचा-चाची सहित भरा पुरा परिवार हुआ करता था।
आज हर तरफ अकेलेपन का माहौल है, सामाजिकता व सामाजिक समरसता समाप्त होती जा रही है। कोई जात-पात में उलझा है तो कोई समाज की ऊंच नीच में, कोई पद प्रतिष्ठा का प्रश्न बना बैठा है तो कोई मान सम्मान में स्वयं को बरबाद करने में लगा है। जिसे मौका मिला वह दूसरों को नीचा दिखाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रहा। ऐसे में एक छोटे से वायरस ने सभी को सीखा दिया कि चैदह दिन का एकान्तोत्सव मना कर स्वयं को पहचान लो। मैं अदृश्य हॅू, लेकिन फिर भी धरती को तपा देने व मौत के आभास के नजदीक पहॅुचा देने के योग्य हूं।