स्वामी विवेकानंद : मौलिक विचारों के प्रणेता 

 श्वेता नागर

शिकागो विश्व धर्म महासभा में अपने उदबोधन के बाद स्वामी विवेकानंद न केवल भारतीय धर्म, संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में विश्व मंच पर पहचाने गए बल्कि निष्पक्ष, निर्भीक और मौलिक विचारों के प्रणेता बनकर उभरे जिसने सम्पूर्ण जगत में मानसिक और भावनात्मक क्रांति की लहर पैदा कर दी।

सोचिए ! स्वामीजी के विचारों में कौनसी ऐसी चुम्बकीय शक्ति थी जिसने चाहे कोई भी नस्ल, जाति, वर्ग, वर्ण, धर्म, देश, काल और समाज हो उन्हें अपनी ओर खींचा। क्योंकि विश्व धर्म महासभा में स्वामी जी के अलावा भी कईं विचारक, विद्वान और बहुत अच्छे वक्ता थे लेकिन स्वामी जी के ज्ञान और वाणी में भारतीय संस्कृति और सम्पूर्ण मानवजाति के प्रति समर्पण और श्रद्धा का वह अटूट विश्वास था जिस कारण वे विश्व में मानवता के प्रवक्ता के रूप में पहचाने गए । वैसे भी जब तक हमारी वाणी, विचार और कर्म में एकरूपता नहीं होती, तब तक हम दूसरों को अपने व्यक्तित्व से आकर्षित कर सकते हैं लेकिन प्रभावित नहीं। स्वामी विवेकानंद के विचारों का आधार उनके सत्कर्मों की साधना थी जिसकी  सकारात्मक ऊर्जा तरंग शक्ति को हम आज भी अनुभव करते है ।

वर्तमान समय में हमारे विचार और सोच का आधार ‘लोकप्रियता ‘ है ।  हम वही कहना चाहते हैं और वही सोचना चाहते हैं जो हमे लोकप्रियता दिलवाए लेकिन विचारों की सत्यता, निष्पक्षता और पारदर्शिता हमेशा लोकप्रियता के निकट हो यह आवश्यक नहीं। इस संबंध में स्वामी जी से जुड़ा एक प्रसंग है जो उनकी सत्यता, निष्पक्षता और पारदर्शिता को रेखांकित करता है।

एक बार स्वामीजी अमेरिका की किसी सभा में  उपस्थित थे, जहाँ उनसे सभा में बोलने का आग्रह किया गया क्योंकि शिकागो विश्व धर्म महासभा के बाद वे काफी लोकप्रिय हो गए थे, तब स्वामीजी ने स्पष्ट शब्दों में सभा के आयोजकों से कहा कि ‘ मैं सभा को संबोधित इस शर्त पर करूँगा कि आप मेरे निष्पक्ष और स्पष्ट विचारों को सुनने के लिए तैयार हो क्योंकि उसमें आपकी संस्कृति और सोच पर असहमति और विरोध रहेगा ,क्या आपको स्वीकार्य है ?’ और उनकी इस शर्त को सभा के आयोजकों द्वारा सहर्ष स्वीकार किया गया ।

निश्चित रूप से स्वामी जी ने जिस दौर में अपने मौलिक विचारों को निर्भीकता के साथ विश्व के सामने रखा वह एक तरह से अभिमन्यु द्वारा चक्रव्यूह भेदने के समान था और स्वामीजी ने पाश्चात्य संस्कृति और विचारों के दम्भ के उस चक्रव्यूह को तोड़ दिया जिसने गुलामी की मानसिकता से भारतीय समाज को जकड़कर रखा था ।

दरअसल स्वामीजी के निष्पक्ष ,निर्भीक और मौलिक विचारों का आधार ‘श्रद्धा’ और’ स्वयं पर अदभूत विश्वास’ रहा। स्वयं स्वामी जी के शब्दों में ‘श्रद्धा का प्रचार करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है । मैं तुम लोगों से फिर एक बार कहना चाहता हूँ कि यह श्रद्धा ही मानवजाति और संसार के सब धर्मों का महत्वपूर्ण अंग है । स्वयं पहले अपने आप पर विश्वास करने का अभ्यास करो ।

 श्वेता नागर

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