सप्ताह का व्यंग्य : भरोसे की भैंस
संजय भट्ट
भैंस का कोई भरोसा नहीं होता। वह कहीं भी किधर भी चली जाती है, लेकिन उनको अपनी भैंस पर पुरा भरोसा था और वे इसी बात से दुखी थे कि भैंस को लेकर कोई भी कुछ भी जो मन में आया कह जाता है। कोई कहता ‘भैंस के आगे बीन बजाने का कोई फायदा नहीं’, कोई कहता ‘ गई भैंस पानी में’ अब कौन समझाए कि क्या भैंस और सांप में कोई अंतर नहीं है, बीन बजाने से सांप के अलावा कौन-सा जानवर नांचता है। पर बदनामी का ठींकरा बैचारी भैंस के सिर ही फोड़ दिया जाता है। हर आदमी रोज सुबह और कई तो सुबह शाम पानी में नहाते हैं, पर भैंस को यह हक भी नहीं। समझ नहीं आता जिसे देखो भैंस के पीछे पड़े रहते हैं।
वह शांत स्वभाव की है, किसी को कुछ भी नहीं कहती और खुद पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज भी नहीं उठाती। बस इसी का फायदा लेकर सभी भैंस को अपने गुस्से और हंसी का पात्र समझ बैठें हैं। जो मन मे आया कह दो, जब मन में आया दो डंडे जमा दो, लेकिन दुनियाभर में दूध, घी, मक्खन, दहीं और मिठाईयों की पूर्ति कौन कर रहा है, किसी ने सोंचा है? इसके बारे में।
इस जमाने में नहीं बरसो बरस से बैचारी भैंस अपनी लाचारी के लिए चुप है। हमारे पूर्व साहित्य के रचने वालों ने भी गायों को महत्व दिया और इतना दिया कि उन्हें कान्हा और राधा के प्रेम के प्रतीकों का प्रतिमान ही बना दिया। माना वह कुंज की गलियों में नहीं समाती होगी, लेकिन गोपियों के सारे मक्खन और दूध के लिए सिर्फ गईयां ही थी, इसे कैसे मान लें?
मान लेते हैं, भैंस का रंग काला होता है, लेकिन क्या इसके लिए वह खुद जिम्मेदार है। वह इस काले रंग के कारण ही नस्ल भेद का शिकार हो रही है। हमेशा से गोरे रंग को महत्व दिया जाता है तथा काले को नकार दिया जाता है। यही दुख बेचारी भैंस को है। उसका रंग भगवान ने काला दिया और फिर गायों के साथ गोपियों संग घूमते रहे। इसमें भैंस का क्या दोष? वह हमेशा से अपनी खामोशी की सजा भुगतते आई है। जो खामोश रहता है, किसी भी अत्याचार के लिए आवाज नहीं उठाता, उसे कोई भी शांतिदूत समझ कर कुछ भी कह जाता है। अब बात ‘शांतिदूत’ की हुई तो इतना सब सहने के बाद भी भैंस के स्थान पर यह खिताब भी श्वेत कपोत को मिल गया। यह भैंस के साथ सीधा-सीधा नस्लीय हमला है, लेकिन फिर भी भैंस ने किसी को कुछ नहीं कहा। शांत मन से अपनी मस्ती में मस्त रहते हुए अपना काम करती रहती है। भैंस किसी की नहीं सुनती इसका मतलब यह नहीं कि भैंस बहरी है। उसे पता है कि एक कान से सुन कर दूसरे निकाल देने में ही भलाई है।
जब भी कोई मौका आता है। भैंस के खिलाफ अपना गुस्सा शब्दों में निकाल जाता है, लेकिन भैंस के दूध के बिना सुबह की चाय नसीब नहीं, स्वादिष्ट मिठाईयों का लपलपाता स्वाद नसीब नहीं और तो और भैंस के बिना उनके बच्चों का भला नहीं। जिसे देखो भैंस को दुहना पसंद करते हैं, लेकिन भैंस के बारे में किसी ने आज नहीं सोंचा। न किसी ने चुनावी वादा किया और न ही कभी इससे मिलने वाले लाभ के एवज में दो वक्त की रोटी से ज्यादा किसी ने कुछ दिया। फिर भी भैंस ही है जो खामोश रह कर सब कुछ सहते हुए अपने मालिक के लिए अपने बच्चे ज्यादा दूध देती है। उसके हर अत्याचार को सहन करके भी उफ्फ तक करने का साहस नहीं करती, लेकिन हम मानव जाति के प्राणी इस मूक भैंस पर कब तक अत्याचार करते रहेंगे। कल्पना करो उस दिन की यदि भैंस ने आवाज उठाई तो फिर महिषासुर मर्दिनी के अलावा के किसी की भी हिम्मत नहीं होगी कि वह भैंस की आवाज को दबा दे।
सभी को लग रहा होगा कि उनको अपनी भैंस पर इतना भरोसा क्यों है? क्योंकि भैंस की अच्छाईयों से उन्होंने बहुत कुछ सीखा है। किसी की बातों की परवाह किए बगैर अपना करना, मालिक के लिए अपना समर्पण का भाव और अपने रूप रंग की तारिफ के बिना भी सभी को सम दृष्टि से देखने कला और भी बहुत कुछ। भैंस को अत्याचार सहन करने की आदत हो गई है, यह सोंचने वाले भूल जाते हैं कि भैंस अपने रास्ते चलती है और रास्ते में आने वाले किसी की भी परवाह नहीं करती है। वह जंगल में भी अपने दम पर शेर जैसे बलशाली जानवर को उठा कर फैंकने का साहस रखती है, लेकिन वहां भी उसके इस पराक्रम का कोई मोल नहीं होता क्योंकि भैंस किसी की तारिफ की भूखी नहीं वह अपनी मस्ती में मस्त रह कर अपने काम से काम रखने की प्रेरणा देती है।
संजय भट्ट