आदमी वह धन्य है, जो आदमी का प्यार पाए
आशीष दशोत्तर
शब्दों को हमारी ज़िंदगी में जिस तरह शामिल होना चाहिए ,उस तरह शामिल होने से बचाया जा रहा है। शब्द हमारी ज़िंदगी को संवारते हैं और दु:खद हक़ीक़त यह है कि इन्हीं शब्दों से हमें दूर किया जा रहा है। कविता हमारी ज़रूरत होना चाहिए, कविता से हमें महरूम किया जा रहा है। यही सब कुछ मनुष्यता की राह दुरूह बना रहा है। मनुष्य होने पर संदेह के जाल बिछा रहा है।
ऐसे मुश्किल वक्त में हमें उन रचनाकारों के शब्दों को छूकर देखने की ज़रूरत महसूस होती है जिन्होंने बहुत कम कहकर भी अपने जीवन को बहुत विस्तार दे दिया । श्री प्राण वल्लभ गुप्त भी ऐसे ही रचनाकार रहे।
प्राण गुप्त जी को जीवन बहुत कम मिला मगर उन्होंने इस छोटे से जीवन को अपनी रचनाधर्मिता से इतना अधिक विस्तार दे दिया कि आज तक उनकी रचनाएं हमें प्रेरित करती है। वर्ष 1932 में बसंत पंचमी पर जन्मे प्राण जी का अवसान 24 दिसंबर 1973 को हो गया। इस अल्प आयु में उन्होंने जो कुछ रचा वह आज भी एक मिसाल बना हुआ है।
प्राण जी ने जितनी तन्मयता से अपने गीतों की रचना की उतनी ही शिद्दत से कविताएं भी रची। उनके गीत छायावाद से प्रेरित होकर भी जनवाद के क़रीब थे । वे प्रकृति के अद्भुत चित्र अपने गीतों के जरिए पेश करते रहे। उनके गीतों में नदी, पहाड़, झरने और खेतों की हरियाली सकारात्मक भावनाओं के साथ उपस्थित हुई हैं । इनमें बिम्बों के पीछे छुपी ध्वनियों को महसूस किया जाए तो इन प्रकृति चित्रों में भी जीवन की तकलीफों को देखा जा सकता है।
आ गए बादल
दूर सागर- कंदराओं से निकल
व्योम के वन-प्रांतरों को रौंदते
क्रुद्ध बाघिन सी करारी धूप पर
टूट पड़ते बिजलियां से कौंधते ।
मानकर रोटी तंदूरी, सूर्य को
खा गए बादल ।
वे प्रकृति दृश्यों का चित्रण करते हुए इसके पीछे छिपी मनुष्य की मेहनत और उसके सपनों को सामने रखते रहे । वे हमेशा आम इंसान की बात करते रहे। प्राणजी उस मनुष्य को प्रेरित भी करते रहे जो किसी भी अभिव्यक्ति के मूल में समाहित है। अपने गीतों से उस मनुष्य को जगाते रहे। उन्होंने जिस बेख़ौफ और बेलौस अंदाज़ में अपनी बात कही , वह कहना किसी मज़बूत इंसान का ही काम है।
तुम उठो तो रात की रानी तुम्हारे पांव चूमे
और यदि तुम मुस्कुराओ साथ में हर फूल झूमे
चाल से चंचल पवन भी होड़ लेकर हार जाए
आदमी वह धन्य है जो आदमी का प्यार पाए।
इसलिए तुम हर गली में प्यार की नदियां बहाना
गीत मेरे सो न जाना।
रचनाकार के समक्ष ख़तरे हर दौर में रहे। बोलने ,सुनने, लिखने की आज़ादी हो कर भी पहरे बिठाए जाने का सिलसिला हर दौर में रहा। मगर रचनाकारों ने अपनी लेखनी के जरिए हर दौर का मुकाबला किया। प्राण जी ने भी मुश्किलों से घबराने के बजाय मुश्किलों का डटकर मुकाबला करने की अपने गीतों में सीख दी।
वे अंधकार का प्रतिकार करते रहे और उजाले की राह पर चलने की प्रेरणा देते रहे। उनके यहां हर शब्द मनुष्य को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता प्रतीत होता है। वे उन लोगों से मनुष्य को सचेत भी करते रहे जो उसे हर बार गिराने की कोशिश करता है।जो मनुष्य को पीछे की ओर धकेलता है। वे हार में भी जीत ढूंढने का संदेश देते रहे।
जबकि सांसों का छिड़ा संग्राम हो
जब न आशा का कहीं भी नाम हो
मौत भी जिनके लिए वरदान हो
ज़हर भी जिनके लिए सम्मान हो
रात के काले कफन से झांकता
हर सवेरे की जवानी आंकता
मंज़िलों के पार बढ़ता जो चले
जो कि मरघट के ह्रदय में भी पले
गीत है वह, जो उठा आवाज़ को
मांगता इंसान से संगीत है ।
गुनगुनाना जिंदगी की रीत है
हार में भी मुस्कुराना जीत है।
एक रचनाकार की ताक़त क्या होती है ,यह वह अच्छी तरह समझता है ।अपने शब्दों की शक्ति से वह किसी भी तानाशाह को मजबूर कर सकता है ।दुनिया में कितने तानाशाह छोटे-छोटे शब्दों से तिलमिलाए और आहत हुए । प्राण जी भी अपनी कविता में शब्द शक्ति के चमत्कार उत्पन्न करते रहे। वे अपनी कविता के जरिए अंधकार का साथ देने वाले लोगों पर तंज़ भी करते रहे । उन्हें पता था कि कलम से निकले हुए शब्दों की थाह लेने किसी तानाशाह को एक कलमकार के पास ही आना पड़ेगा, मगर कलमकार तब तक अपनी एक अलग ही दुनिया रच चुका होगा।
मैंने शब्दों को पतंगों की तरह उड़ाकर
सारा आकाश नाप लिया है ।
अभिमानी सूरज अब अर्थ के लिए
मुझे तलाशता रहता है ।
और मैं
पहाड़ की आड़ में बैठा
एक देश के नक्शे बनाता हूं।
इस प्रक्रिया में जीत हमेशा रचनाकार की ही होती है। एक सूरज सौ अंधेरों पर भारी पड़ता है। रचनाकार का एक शब्द अन्याय और अंधकार के किस्से सुनाने वालों पर भारी होता है। प्राण जी ने भी इसी शब्द की शक्ति को अपनी कविता की ताक़त बनाया और इस ताक़त को मनुष्य की ताक़त से संबद्ध किया।
पोखर में बिखरे हुए
चांद के टुकडे बटोर कर मैंने
उन्हें अपने एलबम में चिपका लिया है।
मेरे कमरे के कोने में
तिपाई पर खड़े फ्लावर पॉट में
सूरज लटक गया है ।
पहाड़ पर खड़ा होकर मैं
पेड़ों के सिरों को उपेक्षा से देखता हूं
आकाश और धरती के बीच अब केवल मैं हूं।
प्राण जी ने अपनी रचना यात्रा में कोई भी रचना स्वांत: सुखांत के लिए नहीं लिखी । उनका काव्य संग्रह ‘सूरज के हस्ताक्षर’ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है ।इस संग्रह की पचास रचनाएं आज भी बोलती नज़र आती है।
एक रचनाकार का दायित्व होता है कि वह एक बेहतर संसार का निर्माण करे। उस बेहतर संसार में बेहतर मनुष्यों का समूह हो । उन मनुष्यों में अच्छे विचारों और संस्कारों का समावेश हो । उन विचारों में जीवन के दुख -दर्द सम्मिलित हों। और उन दुःख- दर्द में मनुष्य के भीतर की थाह लेने की चाहत हो।
इसी हार को जीत बनाने को गाता हूं
घर-घर में खुशहाली लाने को गाता हूं
युग की सांसो को गरमाने को गाता हूं
और ज्योति का पर्व मनाने को गाता हूं।
उजाले के संस्कार रोशनी से विलग नहीं हो सकते। वे तो सदैव भाग्य में लिखे अंधेरे को अपने प्रकार से दूर करते हैं।
कौन कहता, मैं निराश्रय
भाग्य मेरा घोर तममय
मौत से मैंने सदा ही, ज़िंदगी का खेल खेला
मैं नहीं जग में अकेला ।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है ,मगर प्रकृति उन्हें का साथ देती है जो अपनी इच्छाशक्ति से प्रकृति को पुष्पित और पल्लवित करने का माद्दा रखते हैं ।प्राण जी की कविताओं में यही नैसर्गिक भाव नज़र आता है। वे आपसदारी की बात करते रहे। अपने रिश्तों की बात करते रहे। अपने संबंधों की बात करते रहे।अपनी मिट्टी से जुड़ने की बात करते रहे।
उनके भीतर का कवि सदैव अपनी गली-मोहल्लों के लोगों के कांधों पर हाथ रख बतियाता रहा। उनके गीत उनकी बुलंद आवाज़ में लोगों के दिलों तक पहुंचते रहे। होली का फाग उत्सव हो या गली, चौराहों पर काव्य प्रस्तुतियां , प्राण जी ने अपनी बुलंद आवाज़ में वही बात कही जो एक सच्चे रचनाकार को कहना चाहिए । इसलिए उनके गीत बार-बार हमें प्रिय लगते हैं और हमारे भीतर एक सरसराहट पैदा करते हैं।
न संदेह इसमें, खुशी के अधर से
अभी दर्द मुस्कान को पी रहा है
अभी पेट की ज्वाला सपने जलाती
अभी आदमी भाग्य को सी रहा है ।
मगर जल चुकी है सृजन की मशालें
कलाकार जीवन नया फूंकता है
नई पौध की कल्पना के सहारे
धरा पर उतरता गगन झूमता है ।
न रूकती कभी रोकने से रवानी
नई कोंपले जीतती जा रही है ।
गगन मुस्कुराता धरा गीत गाती
हवा गुनगुनाती बही आ रही है।
वे जानते थे कि एक रचनाकार को उम्र भर चलना है और चलते हुए एक ऐसे स्वप्न को दे कर जाना है जिसमें बेहतरी हो ,अच्छाइयां हों और सुख ही सुख हो। प्राण जी ने भी अपनी रचनाओं के जरिए ऐसा ही स्वप्न रचा और वही स्वप्न में अपने बाद देकर भी गए।
रात भर पहरा पसीने पर दिया है
डगमगाए हैं चरण यह मानता हूं
किंतु उंगली थाम कर मेरी जिए हैं
जो मधुर सपने उन्हें पहचानता हूं
हो न बदनामी समय के संगियों की
इसलिए मैं उम्र भर चलता रहा हूं।
समय उन्हें ही याद रखता है जो समय की क़ीमत पहचानते हैं। अपने वक्त की बुराइयों से लड़ते हुए आने वाले वक्त की तहरीर लिखने वालों को ही ज़माना याद करता है । प्राण जी ने भी अपनी रचनाओं के जरिए हर उस व्यक्ति को ताक़त प्रदान करने की प्रेरणा दी जो ऐसे सुंदर समाज की अगुआई कर सकता है।
यद्यपि अगुआई करना आसान नहीं होता और हर कोई अगुआई करने से पीछे हट जाता है। प्राणजी यही कहते हैं कि यदि कोई अपने वक्त में अच्छाई का साथ नहीं देता है , बेहतरी के लिए पहल नहीं करता है, तो समय उसे कभी याद नहीं करता ।समय भी उसे भुला देता है।
भीतर है विद्रोह नपुंसक
बाहर लगे मुखौटे
शब्द अर्थ की भरी हाट से
खाली हाथों लौटे ।
किस का दर्द बने सन्यासी
समझे पीर पराई
कौन करे अगुवाई।
प्राण जी श्रमिक के साथ क़दम मिलाकर चलना जानते थे । उनके गीत और कविताएं कर्म पथ पर बढ़ने की प्रेरणा देती रहीं। तदबीर से तक़दीर बदलने की इच्छाशक्ति का संचार उनकी रचनाएं करती रहीं। वे श्रमिक की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर ईश्वर को भी ललकारने से पीछे नहीं हटे। वे जानते थे कि इंसान के हाथों में ही भगवान की मूरत रचने का गुर है ।इसीलिए वे बहुत ताक़त से ईश्वरीय सत्ता को अपनी रचनाओं में चुनौती भी देते रहे। स्वर्ग -नर्क की अवधारणा में उलझा कर मनुष्य को अपने कर्म से पीछे धकेलने वाले मंसूबों को भी वे अपनी कविता के जरिए बेनकाब करते रहे।
तुम भले तस्वीर खींचो स्वर्ग की
मैं नहीं बातें बनाना जानता
और सच तो यह कि दुनिया से परे
मैं नहीं भगवान को पहचानता।
प्राण जी विश्वास के कवि थे ।उनका विश्वास उस मनुष्यता पर था जिसके पक्ष में वे सदैव खड़े रहे ।एक मनुष्य होकर जीवन में जो कुछ किया जा सकता था, उन्होंने किया। रचनाकार के रूप में उन्होंने अपने शब्दों को आम आदमी के हक़ में इस्तेमाल किया ।उनका यही विश्वास उन्हें बार-बार इस बात को दोहराने की ताक़त देता रहा कि वे कभी मर नहीं सकते । उनका यह विश्वास था कि एक रचनाकार जो अपने शब्दों के जरिए मनुष्यता की बात करता है वह कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
यह याद रखो मैं कभी न मर पाऊंगा
अपनी समाधि से फिर उठ -उठ आऊंगा
जितना विष दोगे उतना पलता जाऊंगा
जितना फूंकोगे हवा,सुभग उतना ही जलता जाऊंगा ।
गाता हूं इसलिए कि मेरा पग जग में मग जाता है
मैं गाता हूं इसलिए कि मुझको राग नया आता है।
प्राण जी के शब्दों की शक्ति हम आज भी महसूस कर रहे हैं ।बहुत कम वक्त में उन्होंने हिंदी साहित्य को बहुत कुछ दिया। उनकी स्मृतियां ,उनके गीत ,उनकी कविताएं बार-बार हमें उनकी ओर खींचती है, प्रेरित करती है।