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गुरु और उनका मार्गदर्शन

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 संजय भट्ट

अवसर था गुरू पूर्णिमा का और मैं तय नहीं कर पा रहा था कि किसको गुरू मान लूॅं, क्योंकि कुछ गुरू थे और वास्तविक गुरू श्रेणी में थे। जो वास्तविक गुरू थे वे गुरूओं की श्रेणी में उत्तम थे, उनका अनुभव तथा उनके कारनामें मामूली नहीं थे। मैं ही क्या उन्हें कई लोगों को पूजने का मन होता होगा, लेकिन क्या करे ? डर कारनामों का रहता है।

मैंने भी बिना घबराए एक ऐसे गुरूजी से पूछा आप ही मार्गदर्शन करें, किसकी पूजा की जाए। वे भी ऊंचे स्तर के गुरू थे, उन्होंने उल्टा मुझ से ही सवाल कर दिया अगर मैं ही आपका मार्गदर्शन करूॅ तो मैं भी आपका गुरू ही हुआ ना ? उन्होंने एक बात कह कर मुझे चौका दिया। उनका मानना था कि हूॅं तो मैं भी गुरू ही लेकिन बस फर्क इतना भर है कि मेरे पास मार्ग और दर्शन दोनों ही नहीं है। जिस मार्ग पर मैं चलता हॅू तथा दूसरों को भी चलाने का प्रयास करता हूॅ वह क्षतिग्रस्त हो गया है, अब कोई भी उस मार्ग का दर्शन करना नहीं चाहता है। हर कोई हाई वे का उपयोग करता है।

मैंने अब उनकी बातों को गौर से सोंचना शुरू किया। वास्तव में वे तो गुरू निकले। उन्होंने बिना गुरू बने ही मुझे एक ऐसा रास्ता बता दिया, जिससे में जीवन में सफलता पा सकता था। मैंने सोंचा सच्चाई, ईमानदारी और आदर्श की राह पर कोई भी नहीं चलता, समय का पालन करना किसी को भी अच्छा नहीं लगता। सभी उस गुरू की तलाश में हैं, जो उन्हें शार्टकट से हाई वे पर ले जाए और कम मेहनत पर ज्यादा लाभ दिलाए। मैंने सोंचा इतने सालों में मैं फर्जी ही खुद को गुरू मानता रहा। बच्चों को शिक्षा देना, उन्हें संस्कार सिखाना, उन्हें सद्कार्यों की प्रेरणा देना, उन्हें प्रगति करते देख खुश होना यही सब करते रहे और वही बच्चे मुझे देख कर अपना मुॅंह क्यों फेर लेते थे?

अब समझ आया उन्हें मुझसे भी बड़े वाले गुरू मिल गए, जिन्होंने उनको ऐसी शिक्षा दी कि वे संस्कार, सद्कार्य से होने वाली प्रगति के स्थान पर धन, बल और पद की प्रगति में लग गए। मेरे संस्कार और सद्कार्यों की प्रेरणा से उन्हें क्या मिलता ? वह समाज में एक अच्छा स्थान तो धन, बल और पद के सहारे ही पा सकते थे। उनका अच्छा होना भी इसी बात पर निर्भर करता है कि वे धन, बल और पद में कितने उॅचे हैं। चाहे उनके घर पर माता-पिता और उन्हें ककहरा पढ़ाने वाले गुरूजी आज भी तकलीफ में जीवन बिता रहे हो, इससे उन्हें क्या फर्क पड़ता है। फर्क पड़ता है तो सिर्फ शार्टकट से हाई वे तक पहॅुचाने वाले उस व्यक्ति से जिसने उसे जमीन से उठा कर आसमान पर बिठा दिया है।

इतने भर से भी समझ नहीं पाया कि गुरू पूर्णिमा पर किस गुरू का वंदन करूॅं ? उनका जिन्होंने मुझे सही मार्ग दिखाया या उनका जिन्होंने मुझे शार्टकट से सफलता के उस मुकाम तक पहॅुचा दिया जहाॅ आज मैं हूॅ।

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