मौन होकर भी मुखर और ख़ास होकर भी आम थे आईएएस कवि सुदीप बनर्जी
शिलाखंड की छांव में लिखे गए शिलालेख
आशीष दशोत्तर
कविता सिर्फ लिखी नहीं जाती ,जी जाती है। महसूस की जाती है । कविता शब्दों की बाज़ीगरी नहीं बल्कि अनुभूतियों अक़्स है। कवि की नज़र अपने परिवेश और परिस्थितियों पर तो होती ही है, वह अपनी रचनाशीलता से उस परिवेश को समृद्ध भी करता है।
किसी कवि की कविताओं के साथ उसकी रचनात्मक सक्रियता, उसकी संवेदनशीलता, उसकी सक्रियता और उसके सकारात्मक प्रयास भी महत्वपूर्ण होते हैं।
कवि सुदीप बनर्जी ऐसे ही रचनाकार रहे जिन्होंने अपनी उपस्थिति से ही कई कविताएं रची। उन्होंने कविताएं बहुत कम लिखीं मगर जी बहुत अधिक। कविताओं के जरिए उन्होंने समाज को और साहित्य को बहुत कुछ दिया। उन्होंने अपने अंदाज़- ए -बयां से कई कोरे पृष्ठ पर उम्मीदों की इबारत लिखी।
हे ईश्वर तुमने बनाए इतने
सुखनवर
कुछ और बात होती गर
दी होती उन्हें थोड़ी बहुत नज़र
कुछ कम ही दिए होते शब्द
श्याम को स्याम कहते , ग़ौर को गौर
वह ही तो होता अंदाज़े-बयाँ और ।
वे रतलाम में वर्ष 1978 से 1980 तक कलेक्टर रहे। मगर एक कलेक्टर से अधिक एक रचनाकार के रूप में। उनकी मौजूदगी यहां एक संवेदनशील रचनाकार के रूप में बनी रही। इस दौरान उनकी लिखी हुई कविताएं काफी चर्चित रही।
कई अफसर अपने ओहदे के कारण बेहतर रचनाकार कहे जाते हैं, मगर कई रचनाकार ऐसे होते हैं जिनकी रचनात्मकता से पद सुशोभित होते हैं । सुदीप जी भी ऐसे ही रचनाकार रहे, जिन्होंने अपने ऊपर कभी अफसरी को हावी नहीं होने दिया। वे यहां रचनाकार मित्रों के बीच एक रचनाकार की तरह शामिल होते रहे और अपनी रचनात्मक प्रक्रिया को भी उन्हीं के साथ आगे बढ़ाया। प्रगतिशील विचारधारा के कवि सुदीप जी का पहला चर्चित काव्य संग्रह ‘शबगश्त ‘ 1980 में रतलाम में रहते हुए प्रकाशित हुआ था। 80 पृष्ठों के इस काव्य संग्रह में उनकी 40 कविताएं संग्रहित हैं। इनमें से अधिकांश कविताओं में रतलाम की महक मौजूद है। इसका ब्लर्ब भी रतलाम में कवि चंद्रकांत देवताले और ‘आवेग’ के संपादक प्रसन्न ओझा ने मिलकर तैयार किया था। इसके बाद उनके काव्य संग्रह ज़ख़्मों के कई नाम (1992), इतने गुमान (1997) प्रकाशित हुए।
जब कोई नहीं सुनता तुम्हारी
तब पुकारो मत खुद को
सुनो उसे जो तुम्हें पुकार रहा है ।
समेट कर हाथ मत रखो जेब में
हाथ धरो उनके जो तुम्हारे आसपास हैं
और जो इतनी दूर भी तुमसे
उन्हें रात बिरात सलाम करो।
रतलाम के सुदूर आदिवासी अंचल बाजना से आगे ग्राम जाम्बूखांदन है। इस गांव में पहली बार सरकारी स्कूल खुला। जिला मुख्यालय से तकरीबन सत्तर किलोमीटर दूर आदिवासी अंचल में स्कूल प्रारंभ होना उस वक्त बहुत बड़ी बात थी। सुदीप जी की रचनात्मक नज़र उस गांव तक पहुंची। वे उस गांव पहुंचकर वहां शुरू हुए स्कूल की महत्ता को अनुभूत करते रहे। ‘शबगश्त’ में शामिल उनकी इस गांव के स्कूल पर लिखी हुई कविता काफी चर्चित रही।
इस साल जाम्बूखांदन में भी पहुंच गया है स्कूल
उसको पहुंचते हुए देखा है दित्या भील ने
सुबह-सुबह एक नौजवान
पतलून और कमीज़ में
इधर उधर देखता हुआ
क्षितिज के क़रीब से आकर पूछता है- कहां है गांव
दित्या बताता है -यही है गांव
दूर-दूर अपने-अपने खेतों में बने हुए
कुल डेढ़ दर्जन टापरे।
नौजवान बतलाता है कि वह नया मास्टर है
इस स्कूल के लिए जो इस गांव में खुला है
दित्या ले जाता है, बैठाता है उसे
एक शिलाखंड की छांव में
और बुलाता है लोगों को
गांव में स्कूल पहुंच गया है
चार औरतें, पांच मरद, सात बच्चे सिमट आते हैं
चकित और सकुचाए
स्कूल पहुंच गया है गांव में।
गोवरधनलाल मास्टर जी कागज पर लिखते हैं
सात बच्चों के नाम
कल से पढ़ाई चालू होगी
इसी शिलाखंड की छांव में
एक दो तीन, क ख ग ही बनेंगे
जाम्बूखादन के शिलालेख ।
स्कूल पहुंचता है गांव में
बाराखड़ी पहुंचती है गांव में
गिनती पहुंचती है गांव में
इतिहास पहुंचता है गांव में
भूगोल पहुंचता है गांव में
आज़ादी के 34 वें साल में
हिंदुस्तान पहुंचता है जाम्बूखादन में।
यह कविता आज भी जाम्बूखांदन में मौजूद है। इस गांव में जाकर मैंने इसे खुद महसूस किया है। सुदीप जी की ख़ासियत रही कि उन्होंने अपनी स्मृतियों में उन स्थानों को, उन दृश्यों को सदैव बनाए रखा, जहां से वे गुज़रे। उनकी कविताओं में ये दृश्य बार-बार उभर कर आते हैं । वे दिल्ली की यमुना नदी का जिक्र करते हैं तो उनके यहां रतलाम में बहती मलेनी भी शामिल होती है । उनके चिंतन में भोपाल के पहाड़ी इलाके आते हैं तो रतलाम के सैलाना -बाजना से छोटे-छोटे पहाड़ भी। वे किसी बड़े झरने की बात करते हैं तो रतलाम की पहाड़ियों से बारिश में गिरते झरने भी। यह उनकी कविता की ताक़त रही।
जहाँ भी गया मैं नदियाँ मेरे काम आईं।
भटका इतने देस-परदेस
देर-सबेर परास्त हुआ पड़ोस में
इसी बीच चमकी कोई आबेहयात
मनहूस मोहल्ला भी दरियागंज हुआ।
पैरों के पास से सरकती लकीर
समेटती रही दीन और दुनिया
काबिज़ हुई मैदानों बियाबानों में
ज़माने की मददगार
किनारे तोड़कर घर-घर में घुसती रही।
सिरहाने को फोड़ती सुर सरिता
दुखांशों से देशान्तरों को
महासागर तक अपने अंत में
पुकारती हुई
मलेनी, नेवज ,डंकनी ,शंखनी,
इन्द्रावती, गोदावरी, नर्मदा, शिप्रा,
चम्बल बीहड़ों को पार करती
कोई न कोई काम आई पुण्य सलिला।
रतलाम में कलेक्टर रहते हुए सुदीप जी के कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण आयोजन हुए।’प्रश्न जो समुद्र है’ शीर्षक से एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम यहां आयोजित हुआ, जिसमें केदारनाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल समेत कई महत्वपूर्ण रचनाकार शामिल हुए। इसमें साहित्य पर विमर्श और कविता पर ख़ास बातचीत हुई । सुदीप जी द्वारा लिखित नाटक ‘किशनलाल’ का मंचन सिविल लाइंस ऑफिसर्स क्लब में ‘युगबोध’ द्वारा किया गया। इसका निर्देशन हरीश पाठक ने किया और इसमें कैलाश व्यास, युसूफ जावेदी, ओमप्रकाश मिश्र, सुमंगला उपाध्याय सहित कई कलाकारों ने भूमिका निभाई। इस नाटक के साथ खास यह रहा कि नाटक की रिहर्सल देखने प्रख्यात कवि भवानी प्रसाद मिश्र रतलाम आए थे। नाटक का जब मंचन हुआ तो उसके अतिथि डॉ. पवन कुमार मिश्र थे। सुदीप जी के समय रतलाम के रेलवे ऑफीसर्स क्लब में मूर्तिकला, चित्रकला पर एक यादगार प्रदर्शनी आयोजित की गई। जिसमें हैदर साहब , शंकर और अन्य महत्वपूर्ण कलाविद मौजूद रहे। ये सारे आयोजन उनकी रचनात्मक सक्रियता का प्रत्यक्ष प्रमाण रहे।जो अधिकारी अपने भीतर के रचनाकार को जीवित रखता है वही इस तरह की गतिविधियां और आयोजन कर किसी शहर को जीवंत बना सकता है। सुदीप जी ने यकीनन रतलाम शहर को जीवंत बनाया, जिसकी स्मृतियां आज भी उस दौर के रचनाकारों में मौजूद है।
यदि यह एक शहर है
तो इस शहर में मकान भी होंगे
यदि यह एक मकान है
तो इसे घर होने की ज़रूरत भी है
शहर के इन तमाम मकानों का मैं क्या करूंगा
यह मकान भी मुझे क्या तहज़ीब सिखाएंगे।
सुदीप बनर्जी का जन्म 16 अक्टूबर 1945 में इंदौर में हुआ था। वे पहले आईपीएस अफसर बने फिर आईएएस। प्रशासनिक सेवा के दौरान मध्यप्रदेश में कई स्थानों पर पदस्थ रहे और मानव संसाधन विकास मंत्रालय से सेवानिवृत्त हुए। 2009 में उनका असामयिक अवसान हो गया।
सुदीप जी ने कविताएं बहुत कम लिखीं मगर जितनी लिखीं वे सभी बेमिसाल थी। उनकी हर एक कविता का एक अलग ही आयाम नज़र आता है। हिंदी के साथ उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल उनके यहां शमशेर से भी अधिक दिखाई देता है । वे कदाचित इस तरह का प्रयोग करने वाले अपने ढंग के विरले कवि थे । सुदीप जी का प्रशासनिक पक्ष अपनी जगह था, वहां के संबंध अपनी जगह थे ,वहां के दायित्व अपनी जगह थे। मगर उनका रचनात्मक जुड़ाव अपनी जगह ।रचनाकारों के बीच एक जाजम पर बैठकर वे अपने पद और प्रभाव को विस्मृत कर दिया करते थे । उनके भीतर के रचनाकार को इसी से ताक़त मिलती थी।
ज़ख्मों की ताक़त से मत फ़तह करो सब कुछ
मत बनाओ अपने दुःख को नायक
बख़्शो अज़ीज़ों को उनकी किलेबंदी
महफूज़ दिनचर्याओं पर
मत लहराओ अपने अधझुके परचम।
सुदीप जी मौन होकर भी मुखर थे। ख़ास होकर भी आम थे। तमाम वैयक्तिकता के बीच मिलनसार। उन्होंने अपनी कविताओं के जरिए ही नहीं बल्कि अपनी कोशिशों के जरिए भी एक ऐसा ताना-बाना बुना जो हिंदी कविता को समर्थ कर गया। सुदीप जी की कविताएं आज भी धड़कती महसूस होती हैं। यही उनकी मौजूदगी है।
12/2, कोमल नगर
बरवड रोड
रतलाम-457001
मो.9827084966