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व्यंग्य रचनाओं के जरिए संवेदना को व्यक्त करते रहे रचनाकार दिनकर सोनवलकर

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 अभी दूर है मंज़िल, अभी इम्तिहान बाकी है

 आशीष दशोत्तर

सृजन संस्कारित भी करता है और वैचारिकता भी प्रदान करता है । संवेदनाओं का प्रसार सृजन के साथ ही होता है ,इसलिए एक रचनाकार को संवेदनशील कहा जाता है। अपनी कविताओं के ज़रिए, अपनी व्यंग्य रचनाओं के जरिए ऐसी ही संवेदना को व्यक्त करते रहे रचनाकार श्री दिनकर सोनवलकर अपने समय के महत्वपूर्ण रचनाकार रहे। वे अपनी रचनाशील दृष्टि से समय को आंकते रहे । दिनकर जी अपनी वैविध्यपूर्ण रचनाओं के लिए जाने जाते रहे। उनके विस्तृत सृजन संसार में कई सारी खूबियां परिलक्षित होती हैं।रचनाओं में वे मनुष्यता की बात करते हैं । आत्मीय रिश्तों की बात करते हैं । संवेदनाओं से जुड़ते हैं और एक सार्थक ज़िंदगी जीने के लिए इन सभी के महत्व को रेखांकित भी करते हैं।

मानवता मेरी मां ,प्यार मेरे पिता

आस्था मेरी बहन, श्रम मेरा बंधु

वेदना बहुरंगीनी ,मेरी जीवन संगिनी

सुख-दु:ख के गीत, मेरे सच्चे मीत

इस भरे-पूरे परिवार में बड़े मज़े के साथ

जी रहा हूं एक सार्थक ज़िंदगी।

सोनवलकर जी अपनी कविताओं के जरिए बहुत साधारण तरीके से गंभीर बातों को सामने लाते रहे। वे संगीत के ज्ञाता थे ,उनकी कविताओं में एक लयबद्धता स्पष्ट नज़र आती रही। वे किसी भी बात को इतने सलीके से सामने रखते रहे जिससे वह बात अपने मूल प्रभाव को छोड़ सके । वे प्रकृति के दृश्य का वर्णन करते हुए , मौसम की बात करते हुए भी जीवन के दुःख- दर्द को ,वंचितों की व्यथा को, पीड़ितों के आंसुओं को अभिव्यक्त कर दिया करते थे।

गाना, खुश होना, मस्ती से झूमना

रस में डूबना सिर्फ इसलिए नहीं

कि बसंत आया है

ढ़ेर- ढ़ेर सौगातें लाया है

बल्कि इसलिए कि ज़िंदगी

अपने अभावों के बावजूद

गाने के लिए, खुश होने के लिए

मस्ती से झूमने और

रस में डूबने के लिए है।

इसी कोशिश में हर रचनाकार लगा रहता है कि वह जीवन की तमाम मुश्किलों से लड़ते मनुष्य की पीड़ा को सामने लाए। उसका पक्ष दुनिया के सामने रखे। उसकी वास्तविकता से ज़माने को परिचित करवाए।इसके साथ ही आम आदमी किन परीक्षाओं से गुज़र रहा है, उसे जीवन में कितने इम्तेहान देने हैं, वह जीवन की विषमताओं का सामना कैसे कर रहा है ,इसकी अभिव्यक्ति भी एक रचनाकार ही प्रदान करता है। दिनकर जी ने भी यह अभिव्यक्ति अपनी रचनाओं के ज़रिए की।

मिलती तो है ज़िंदगी मगर बड़ी मुश्किल से

मिलते तो हैं हमसफर हरदम मगर

हम अभी भी दूर हैं मंज़िल से

शायद अभी बाकी हैं

कितने ही इम्तिहान।

इन इम्तिहानों से गुज़रना ही मनुष्य का भाग्य भी है और कर्म भी। यदि जीवन में इम्तिहान न हो तो मनुष्य सही अर्थों में मनुष्य बने ही नहीं। दिनकर जी ने अपने काव्य के ज़रिए मनुष्य की इसी ताक़त को बखूबी अभिव्यक्त किया । वे इस व्यथा के जरिए मनुष्य के भीतर की कथा को आवाज़ देते रहे।

ज़िंदगी का एक ही मकसद है

जिसका उन्वान इंसानी मुहब्बत है।

कुछ नहीं मिलेगा ख़्वाबों में

बुजदिली छिपेगी नहीं नक़ाबों में

मिलेगा अगर कुछ तो

आदमीयत के लिए लड़ने से

परिवर्तन की दिशा में बढ़ने से।

दिनकर जी संगीत में पारंगत थे, इसलिए उनकी रचनाधर्मिता में भी बार-बार संगीत लौटकर आता है। सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर को जन्मदिवस पर उन्होंने काव्यात्मक बधाई प्रेषित कर की तो लता जी को भी वह काफी पसंद आई। उस कविता पर लता जी ने स्वयं हस्ताक्षर कर दिनकर जी को प्रेषित की। वे संगीत के साधक भी थे और आराधक भी।

वे गीत- संगीत के ज़रिए कई महत्वपूर्ण बातों को रेखांकित किया करते थे । उनकी रचनाओं में संगीत की बारीकियों के साथ जीवन की विवशताओं का समावेश देखने को मिलता है। उन्होंने संगीत के साथ कई ऐसे बिंबो को आकार दिया जिनसे उनकी रचनाएं महत्वपूर्ण होती गई ।

दरअसल यह शरीर नहीं एक सितार है

जो दे दिया गया है हमें ।

चुनौती है कि देखें कौन गा पाता है

सबसे मधुर संगीत

कौन बना पाता है

पूरी दुनिया को अपना मीत।

और दुनिया को अपना मीत बनाने के लिए संगीत की तरह विनम्र होना भी ज़रूरी है । संगीत की तरह सर्वप्रिय होना भी ज़रूरी है । इस बात को भी उन्होंने बखूबी रेखांकित किया।

तारों को बहुत ज़्यादा मत कसो

और न ढीला छोड़ो

हर तरह की अति से मुंह मोड़ो ।

बस सम पर रहो,

शून्य डिग्री अहम पर रहो

फिर छेड़ो मानवीय संवेदना का गीत

मीरा और कबीर जैसा तन्मय संगीत।

दिनकर जी की व्यंग्य कविताओं की अपनी अलग विशेषता रही। उन्होंने मौजूदा व्यवस्थाओं पर गहरे कटाक्ष किए। इसीलिए उनकी व्यंग्य कविताएं काफी पसंद की जाती रहीं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और धर्मयुग के संपादक रहे श्री धर्मवीर भारती ने तो यहां तक कहा था ‘ हिंदी में व्यंग्य कविता की शुरुआत ही दिनकर सोनवलकर से होती है।’ यह उनकी रचनात्मकता का जीवंत प्रमाण था।

            एक रचनाकार हमेशा व्यवस्था के विरोध में अपनी बात रखता है। ऐसा कर वह उस आम आदमी के साथ खड़े होने की कोशिश करता है जो उस व्यवस्था की विसंगतियों का शिकार है। दिनकर जी की व्यंग्य कविताओं में भी व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों का चित्रण और उससे आम आदमी को होने वाली पीड़ा का स्वर्ग दिखाई देता रहा।

फाइलों के पैर नहीं होते

वे चांदी के पहियों पर चलती है

अफसर से अफसर तक

दफ्तर से दफ्तर तक ,

दौड़ाना चाहते हो अपनी फाइल

तो लगवाओ चांदी के पहिए ।

दिनकर जी शिक्षाविद थे। महाविद्यालय में शिक्षा प्रदान करने के साथ उन्होंने अपने विद्यार्थियों के भीतर सृजनात्मक संस्कार भी डाले। यही कारण रहा कि उनके पढ़ाए कई विद्यार्थी साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मुकाम तक पहुंचे। दिनकर जी रतलाम महाविद्यालय में 1964 से 1970 तक रहे । वर्ष 70 के बाद सेवानिवृत्ति तक रतलाम के ही जावरा महाविद्यालय पदस्थ रहे।

रतलाम में पदस्थ रहने के दौरान शासकीय महाविद्यालय में 1966 में एक घटना घटित हुई, जिसमें एक विद्यार्थी ने एक प्राध्यापक पर प्राणघातक हमला किया । इससे व्यथित होकर दिनकर जी ने ” हमलावर छात्र के नाम घायल प्राध्यापक का वक्तव्य”  शीर्षक से एक लंबी कविता लिखी। इसकी शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा –

वाह रे , आधुनिक एकलव्य

किन बुरे क्षणों में तूने यह वार किया?

जबकि मैं आश्वस्त था कि

तू आतताइयों के खिलाफ हरदम लड़ेगा

देश की नई तस्वीर तू ही गढ़ेगा

मेरे लिए दु:खी ,दीन दलितों के लिए

एक कवच सिद्ध होगा ।

पर तूने तो उठाई कटार मेरे ही विरुद्ध ।

इस लंबी कविता की उस वक्त में काफी चर्चा हुई।इस कविता पर उनके ही विद्यार्थी रहे और बाद में एक महत्वपूर्ण रचनाकार के रूप में स्थापित हुए डॉ. जयकिरण जोशी ने उसी अंदाज में एक कविता लिखी “दंभी प्राध्यापक के प्रति, एकलव्य की गुरु दक्षिणा।” गुरु-शिष्य का यह काव्यात्मक संवाद उस वक्त साहित्यिक क्षेत्र में काफी चर्चित रहा और आज भी प्रासंगिक है।

दिनकर जी अपने विद्यार्थियों के साथ तो आत्मीय रहे ही अपने परिजनों के प्रति भी उतने ही स्नेह पूर्ण। उनकी कविता में उनकी जीवनसंगिनी, उनके मित्र, उनके परिजन बार-बार उपस्थित होते हैं ,और उन्हीं के ज़रिए वे कई महत्वपूर्ण बात भी कह जाते हैं।  उनकी कविता में उनके पुत्र- पुत्री भी शामिल होते हैं और उसके माध्यम से वे अपनी कविता को एक नया आयाम प्रदान करते हैं । अपने पुत्र को इंगित एक कविता में वे कहते हैं-

छोटी-छोटी बातों पर मुझसे

घंटो नाराज़ बैठा रहता है मेरा बेटा

मुझे उसकी नाराज़गी से कतई एतराज़ नहीं

मेरी कोशिश सिर्फ यह है कि वह

बड़े मुद्दों पर नाराज़ होना सीखे

भले ही उसके जीवन में पग-पग पर युद्ध हों

मगर उसकी आत्मा बुद्ध हो।

यहां उनका पुत्र सिर्फ उनका ही पुत्र नहीं एक पूरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहा है और उसकी आत्मा में बुद्ध की स्थापना करने की बात करते हुए वे नई पीढ़ी में समानता, समरसता , शांति और सद्भाव की स्थापना की कामना कर रहे हैं। यह उन्हीं के संस्कार रहे कि उनके परिवार में आज भी साहित्य का वातावरण बना हुआ है । अमूमन यह कहा जाता है कि पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र-पुत्री बनते हैं मगर दिनकर सोनवलकर जी की साहित्यिक विरासत के जिम्मेदार उत्तराधिकारी भी उनके परिजन ही बने हुए हैं । उनके कवि पुत्र प्रतीक सोनवलकर निरंतर उनकी रचनात्मकता को लेकर गतिविधियां कर रहे हैं। अपने पिता के जीवन से जुड़ी कई स्मृतियों को वे साहित्य जगत से साझा कर उसे चिरस्थाई बनाने का प्रयास भी कर रहे हैं। ऐसी ही एक स्मृति में वे कविवर हरिवंश राय बच्चन से दिनकर सोनवलकर जी के आत्मीय रिश्तों को साझा करते हुए वे कहते हैं ” 1960 के आसपास जबलपुर में एक कवि सम्मेलन सेठ गोविन्ददास जी के सौजन्य से आयोजित किया गया था।इसमें 53 वर्षीय बच्चन जी और 28 वर्षीय दिनकर जी एक ही मंच पर थे। पहली पत्नी स्व. श्यामाजी की याद में बच्चन जी की एक दुखांत कविता ‘साथी अंत दिवस का आया’ को दिनकरजी ने उसी मंच से स्वरबद्ध कर प्रस्तुत की।जैसे ही गीत समाप्त कर दिनकर जी देखा, बच्चन जी की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही है।दिनकर जी को लगा कि मैंने ये गीत सुनाकर महाकवि को दुःखी कर दिया।अगले ही पल बच्चन जी उठे और दिनकरजी को गले से लगा लिया।वहां से हुए परिचय से मित्रता का सिलसिला प्रारंभ हुआ। इसके बाद दोनों में पत्रों के नियमित आदान-प्रदान का सिलसिला आरम्भ हुआ वो 2000 तक दिनकरजी की मृत्यु के कुछ साल पहले तक चलता रहा। बच्चन जी दिनकरजी के पैतृक घर दमोह भी आये और 1966 में रतलाम कॉलेज के वार्षिकोत्सव में दिनकरजी के अनुरोध पर मुख्य अतिथि बतौर शामिल हुए।  यहां बच्चन जी ने सस्वर मधुशाला सुनाई और हारमोनियम पर संगत दिनकर जी ने की। बालकवि बैरागी भी इस कार्यक्रम में उपस्थित थे।”

कदाचित मधुशाला का बच्चन जी द्वारा वाद्ययंत्र के साथ सस्वर पाठ रतलाम में ही पहली बार हुआ था। ऐसे कई प्रसंग दिनकर सोनवलकर जी के जीवन के साथ जुड़े रहे। वे ताउम्र सक्रिय बने रहे। मित्रों के मित्र बने रहे। रचनाकारों में अपने श्रेष्ठ लेखन के लिए जाने जाते रहे। उनकी रचनाएं उस समय की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होती रही ।  उन्होंने अपने जीवन में जो साहित्य रचा उसको उन्होंने जिया भी। आने वाली पीढ़ी को बहुत कुछ सौंपा भी। वे अपना श्रेष्ठतम रचते रहे और बेहतर से बेहतर लिखते रहने की कामना निरंतर करते रहे।

कलम से सिर्फ एक

और

हजार कविताएं लिखनी हैं चारों तरफ़ ,

कोई ऐसी लेखनी भेजो

कि सात रंगों से लिख सकूं

ज़िंदगी का अफ़साना।

उनकी रचनाएं आज भी हमें आनंदित करती है, सोचने के लिए विवश करती है और एक नई दृष्टि देती है । दिनकर सोनवलकर जी का अवसान 7 नवंबर 2000 को हो गया। उनकी रचनात्मकता का निरंतर मूल्यांकन हो रहा है, यह साहित्य जगत के लिए सुखद है।

 12/2, कोमल नगर, बरवड रोड़
रतलाम-457001 मो. 9827084966

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