भगवान श्री कृष्ण के उपदेश की प्रासंगिकता : फर्श से अर्श तक छूने का गुर है श्रीमद् भगवत गीता में
🔲 आचार्य सत्यव्रत शास्त्री
महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण ने जो उपदेश दिए थे। उनकी प्रासंगिकता हर दौर में सार्थक है। श्रीमद् भगवत गीता के उपदेश का अनुसरण करते हैं तो जीवन में हर कोई फर्श से अर्श को छूने में सफल होता है। यह गुर श्रीमद् भगवत गीता से सीखने को मिलता हैं। जरूरत है श्रीमद् भगवत गीता उपदेशों को आत्मसात करने की। अनुसरण करने की। फिर देखिए जीवन कितना सार्थक हो जाएगा। औरों की सफलता पर टीका टिप्पणी करना तो आसान है लेकिन उनकी सफलता के पीछे क्या राज है? उसको जानना भी उतना ही जरूरी है। सफलता के पीछे उनके क्या त्याग हैं। संकल्प है। अनुसरण हैं। उसको जीवन में उतारेंगे तो स्वयं भी उनके जैसे या उनसे बेहतर सफलता के आकाश को मुट्ठी में कर सकते हैं।
श्रीमद् भगवत गीता में जीवन प्रबंधन के गुर समाहित हैं। जिनको समझकर कोई भी मनुष्य अपने जीवन में छोटे छोटे बदलावों से उन्नति कर सकता है। अगर हम आज भी अपने जीवन में गुर उतारेंगे तो भविष्य में उन्नति की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
🔲 यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थात श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य पुरुष उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं। भगवान श्री कृष्ण के इस उपदेश से जो हमें जीवन प्रबंधन का मंत्र मिलता है, उसके अनुसार श्रेष्ठ व्यक्ति को हमेशा अपने पद और गरिमा के अनुसार ही व्यवहार या आचरण करना चाहिए। क्योंकि वह लोगों के लिए आदर्श हैं और वो जैसा करेंगे लोग भी वैसा ही अनुसरण करेंगे।
🔲 विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
अर्थात जो मनुष्य अपनी इच्छाओं और कामनाओं को त्यागकर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति मिलती है।
यहां भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार जिस मनुष्य के मन में किसी प्रकार की इच्छा व कामना होती है, उसे कभी सुख शांति प्राप्त नहीं होती। अतः सुख-शांति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को सबसे पहले अपनी इच्छाओं का त्याग करना होगा। हम कर्म के साथ उसके आने वाले परिणाम के बारे में सोचते हैं, जो हमें दुर्बल बनाता है। लेकिन हमें परिणाम कि चिंता न करके अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए, जिससे हम अपने कर्तव्य का पालन कर सकें
🔲 न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।
अर्थात ज्ञानी पुरुष, कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे, स्वयं (भक्ति से) युक्त होकर कर्मों का सम्यक् आचरण कर, उनसे भी वैसा ही कराएं।
तब वे बन जाएंगे आदर्श
भगवान कृष्ण के श्लोक को अगर हम आज से जोड़ कर देखें तो आज का दौर प्रतिस्पर्धा का दौर है। यहां हर कोई आगे बढ़ने की होड़ में लगा हुआ है। ऐसे में अक्सर देखा जाता है कार्यस्थल में जो चतुर होते हैं, वह अपने साथी को कोई भी प्रयास करने से रोकते हैं और स्वयं मौका पाकर आगे निकल जाते हैं। मगर श्रेष्ठ वही होता है, जो अपने कार्यों से दूसरे के लिए आदर्श बन जाए।