नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है…
आशीष दशोत्तर
बदलते समय की व्यथा जान लीजे, ज़रा कुछ इधर की कथा जान लीजे, बदलना है इसको बदल के रहेगा, नया कुछ यकीनन ये कर के रहेगा, लिखेगा अलग ही ज़माने से हटकर, रहेगा नहीं दायरों में सिमटकर। संभलकर ही रहना, वो अब आ रहा है। नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है।
नई है लहर और ख़तरा नया है, उसे है ख़बर और सबकुछ पता है, नया कोई संकल्प वो ले ही लेगा, नई नित्य रचना से उपकृत करेगा, वो भीतर ही भीतर उलझ भी रहा है, किसी आग में तो झुलस भी रहा है। सृजन की हदें तोड़ता जा रहा है । नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है।
घुमड़ती घटा पर लिखा तो बहुत है, छिटकती छटा पर कलम अनवरत है, अड़ोसी- पड़ोसी सभी को लताड़ा , सगों पर लिखा और रिश्ता बिगाड़ा, कहीं यार छूटे कहीं प्यार रूठा, कहा सच मगर सबने समझा है झूठा। नया पल-प्रतिपल ये कुछ ला रहा है। नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है।
किसी ने कहा ये बहुत लीनियंट है, किसी ने बताया कि ओबेडिएंट है, कहीं ये बताया गया इंटेलिजेंट है, अंधेरे में समझा गया वायब्रेंट है, कहा नासमझ ने ये ‘बाय एक्सीडेंट’ है, समझदार बोला ग़ज़ब ही टेलेंट है। मगर अब कोई ब्रिलियंट आ रहा है। नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है।
ये दिखता नहीं है नए रूप धरता, कभी दिख भी जाए तो खुद को बदलता, नया काम देखो यही कर रहा है, अकेला ही सिस्टम से ये लड़ रहा है, उठाने से उंगली नहीं चूकता है, मुसीबत में घिरकर नहीं टूटता है। इसे देखिए खुद पे पोमा रहा है। नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है।
अभी तक थी सबसे अलग बात इसकी, हमेशा ही अच्छी थी सौग़ात इसकी, न जाने कहां से कहां तक गया है, ज़मीं से ही अंबर भी इसने छुआ है, न त्योहार छोड़े, तिथि, वार छोड़ा, किसी को, किसी से, कहीं पर भी जोड़ा, मगर खुद में बदलाव अब ला रहा है। नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है।
निखरते नयन के न रस में बहेगा, कपोलों की कल्पित कथा न कहेगा, न श्रंगार,अंगार, करुणा,न निंदा, न फूलों की बातें न कोई परिंदा, पशुप्रेम पर भी बहुत लिख चुका है, महल और सड़क पर भी लिखकर थका है। परिधि में विस्तार अब ला रहा है। नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है।
नदी की वो कल-कल कहीं अब न लाऊं,न पंछी का कलरव कहीं भी सुनाऊं, भ्रमर की भी गुंजन को रिप्लेस कर दूं, नए रंग तितली के पंखों में भर दूं, करूं कुछ तो ऐसा कि बिल्कुल अलग हो, ज़माना भी पढ़के ज़रा तो सजग हो। यही सोचकर अब ये टर्रा रहा है। नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है।
लिखा इतना तीखा मगर बेअसर है, किसी को कलम का नहीं कोई डर है, गधे मौज कितना यहां कर रहे हैं , जो घोड़े हैं वे घास ही चर रहे हैं, पुती जितनी कालिख वो उतना धवल है, उसी का ही चर्चा यहां आजकल है। सितम सबके सहकर सितम ढा रहा है। नए वैरिएंट में नज़र आ रहा है।