व्यंग्य : वो हैं ज़रा ख़फ़ा-ख़फ़ा

⚫ ख़फ़ा होना उनका स्वभाव है। उन्होंने इसके अलावा और कुछ सीखा ही नहीं । आप उन्हें मान देंगे, सम्मान देंगे तो भी वे ख़फ़ा ही रहेंगे कि इतना मान सम्मान किसलिए! मैं इस लायक नहीं। आप उनकी अनदेखी करेंगे तो भी वे ख़फ़ा होंगे कि हमारी घोर उपेक्षा की जा रही है। ख़फ़ा होने में वे जिजाओं और फूफाओं को भी मात देते हैं। ⚫

आशीष दशोत्तर

इन दिनों वे ख़फ़ा हैं। ख़फ़ा होना उनकी अदा भी है, आदत भी है,  शगल भी और अधिकार  भी। वे  बात -बात पर ख़फ़ा हो जाते हैं। या कहिए हर बात पर ख़फ़ा हो जाते हैं। उनकी तरफ़ देख कर यदि आप मुस्कुरा दें तो वे ख़फ़ा हो जाएंगे। उनकी तरफ़ देखकर यदि आप न मुस्कुराएं तो भी ख़फ़ा होंगे। उनसे कुछ बोलेंगे तो भी ख़फ़ा होंगे और कुछ नहीं बोलेंगे तो भी ख़फ़ा हो जाएंगे।

ख़फ़ा होना उनका स्वभाव है। उन्होंने इसके अलावा और कुछ सीखा ही नहीं । आप उन्हें मान देंगे, सम्मान देंगे तो भी वे ख़फ़ा ही रहेंगे कि इतना मान सम्मान किसलिए! मैं इस लायक नहीं। आप उनकी अनदेखी करेंगे तो भी वे ख़फ़ा होंगे कि हमारी घोर उपेक्षा की जा रही है। ख़फ़ा होने में वे जिजाओं और फूफाओं को भी मात देते हैं।

आप उन्हें किसी सूरत में संतुष्ट नहीं कर सकते।वे इस धरा पर असंतोष के प्रतीक हैं । किसी से भी प्रसन्न रहना उन्होंने सीखा ही नहीं।  अपने घर से लेकर मोहल्ले तक,मोहल्ले से लेकर शहर,  शहर से लेकर प्रदेश,  प्रदेश से लेकर देश और देश से लेकर समूचे विश्व में हर किसी से उन्हें कोई न कोई परेशानी है ।

जब तक वे घर वालों की नज़र में काम के रहे , यानी कामकाज करते रहे, तब के उनके साथियों पर क्या बीती इसके संस्मरण आप न भी सुनें मगर उनकी शान में कही गई उपमाएं भी सुनने लायक हैं। खड़ूस था, शार्ट टेम्पर्ड, ऐबला , महा पकाऊ, टेढ़ी पूंछ,  हायला, महामानव, महान आत्मा, दूसरे ग्रह का निवासी आदि..आदि। साथियों की इन  उपमाओं से उनकी शख़्सियत का अंदाज़ा आप लगाइए। ऑफिस में किसी से बनी नहीं होगी। हर दिन कोई न कोई विवाद हुआ होगा वह अलग। उन्हें कोई ऑफिस में समझ नहीं पाया होगा और वे ऑफिस में किसी को समझें, ऐसा कोई होगा ही नहीं। साथियों की मानें तो रोज़ घर से दफ़्तर तक की यात्रा यानी अप -डाऊन वे अक्सर खड़े-खड़े ही किया करते थे।  किसी के पास बैठा जाए ऐसा कोई उन्हें पूरे यात्राकाल के दौरान नहीं मिला। अपने से कमतर के साथ बैठना उन्हें गंवारा न हुआ। वैसे साथी यह कहते हैं कि उन्हें यात्रा में बैठने से भी असंतोष था । एक बार किसी ने खिड़की के पास सम्मानपूर्वक जगह दी तो उससे भिड़ गए, ‘कैसी जगह बिठाया है?  यहां हवा ही हवा आ रही है ।’ एक और बार किसी ने खुद खड़े हो कर सीट के बीच में  उन्हें जगह दी तो उस पर भी निकल लिये, ‘ दो पाटों के बीच में फंसा दिया।’  इसके बाद से उन्हें किसी ने अपने पास बैठाना मुनासिब न समझा । ‘बस’ में भी वे ‘बेबस’ ही रहे।अलबत्ता वे यह कहते पाए गए कि यहां कोई ऐसा है ही नहीं जिसके पास हम बैठ सकें।

घर वालों की नज़र में वे ‘ यूं ही’ रहे। नासमझ दुनिया उन्हें देख कहती रही, ‘ये आख़िर है ही क्यूं?’ आज तक उन्हें कोई समझ नहीं पाया, उनकी एक तो यही पीड़ा है। उन्हें असंतोष इसलिए भी रहता है कि इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी उन्हें महत्वहीन समझ लिया गया है। कोई महत्व ही नहीं दिया जा रहा है। यद्यपि जब महत्व दिया जाता था तो वे उससे भी ख़फ़ा रहते थे कि उन्हें इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है। ख़फ़ा होना  उनकी पहचान है। अब तो हाल यह हैं कि, किसी दिन वे ख़फ़ा नहीं होते हैं तो घरवाले चिंतित हो, डाक्टर को बुलवा लेते हैं !

आशीष दशोत्तर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *