रोहिणी तप रही है
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वर्षा के लिये
चल रहा है अनुष्ठान ,
चिन्ता मत करो ,
न करो हाहाकार ,
विश्वदेव , पर्जन्य , उनचास पवन
डाल रहे आहुतियाँ अपनी-अपनी ,
अभंग व्रत में
धरती खप रही है ।
धीरज रखो ,
तुम्हारे लिये ही
रोहिणी तप रही है ।।
पर्वत खड़े हैं
भुजाएँ फैला कर स्वागतातुर ,
मिट्टी गूँथ रही है स्वप्नमालाएँ ,
धरती पर जब उतरेंगी पर्जन्य की ऋचाएँ ,
रोम-रोम पुलकित हो उठेगा ।
जंगल में , समुद्र में , नभ में , वनस्पति में ,
पशु में , पक्षी में , जन-जन में बैठी प्रकृति
वर्षा के निमित्त ही
माला जप रही है ।
धीरज रखो ,
तुम्हारे लिये ही
रोहिणी तप रही है ।।
दुःख के घाव हैं
धोने तो पड़ेंगे ,
नीरद को चाहिए वैश्वानर की तपस्या ।
यज्ञ सफल नहीं होते तप के बिन ,
पसीना ही लाता है
आषाढ का पहला दिन ।
सूरज की कविताएँ
धूप में छप रही हैं ।
धीरज रखो ,
तुम्हारे लिये ही
रोहिणी तप रही है ।।
⚫✍ डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला