कसमे, वादे, बातें हैं बातों का क्या : मूलभूत सुविधाओं से वंचित लोगों के लिए ना रोजगार, ना उच्च शिक्षा, नहीं चिकित्सा सुविधा, फिर भी बनाएंगे महानगर
हेमंत भट्ट
चुनाव है तो ऐसा नहीं कि कुछ भी वादे कर लिए जाएं। यही समझ कर कि कसमे, वादे, बातें हैं बातों का क्या? लेकिन ऐसा नहीं है जो कुछ भी वादे करें, उनका कुछ तो ठोर होना ही चाहिए। जो नगर सरकार अब तक लाखों लोगों को मूलभूत सुविधाएं नहीं दे सकी। वह नगरी निकाय निर्वाचन में अब रतलाम को महानगर बनाने के वादे कर रही है जबकि यह बात हर कोई भली-भांति जानता है कि महानगर बनाने की क्या प्रक्रिया होती है?
शायद नेताओं को पता नहीं है कि महानगर वही बन पाता है, जहां पर बाहर से, अन्य जिलों से, अन्य राज्यों से आकर बसते हैं। अपना रोजगार व्यवसाय करते हैं। उन्हें समुचित सुविधा मिलती है। यहां तक कि उन्हें बेहतरीन शिक्षा मिलती है। बेहतरीन चिकित्सा सुविधा मिलती है। औद्योगिक क्षेत्र होता है, जहां पर देश प्रदेश के औद्योगिक घराने अपने उद्योग स्थापित करते हैं। और उस शहर की आबादी कम से कम 20 लाख होती है, तो वह महानगर की श्रेणी में आता है।
यहां पर आकर बसते नहीं बल्कि कर रहे हैं पलायन
रतलाम इस मामले में बिल्कुल उलट है। रतलाम में बाहरी जिले तो ठीक आसपास के ग्रामीण क्षेत्र के लोग भी रतलाम में आकर रहने और मकान बनाने के लिए उत्सुक नहीं हैं। वजह साफ है कि यहां की जमीने सौदागरों ने मनमाने ऊंचे दाम पर कर रखी है। रतलाम में लोग आने की वजह यहां से लोग जाने में विश्वास कर रहे हैं क्योंकि उनके बेटे बेटी बाहर पढ़ाई के बाद वहीं पर जॉब भी करने लगे हैं। इसलिए रतलाम से असंख्य परिवार अपना घर बार बेचकर भी चले गए हैं। यानी कि पलायन कर चुके हैं। रतलाम में स्थापित होने की कोई सोचता नहीं है क्योंकि यहां सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं। है तो बस यह की सुबह होते ही पोहे कहां खाना है। कचोरी कहां की दबाना है और चाय की चुस्की कहां पर लेना है। यह पूर्ति 12 बजे तक हो जाती है। इसके बाद दुकान जाने की भी सोचते हैं और फिर वही सोच दुकान जाने के बाद कि शाम को किस रेस्टोरेंट में खाना खाना है। यही तक जिंदगी सीमित रह गई है। बाकी उनके बच्चे अपनी जिंदगी के लक्ष्य को लेकर शहर छोड़ने को बेताब हो जाते हैं और वे अकेले नहीं अपितु अपने परिजन को भी कुछ साल बाद ले जाते हैं। ऐसा महानगर की जीवन शैली में नहीं है।
नहीं हुई उसकी भी कोई सुगबुगाहट
महानगरों में लोग अन्य जिलों व राज्यों से आकर वहां पर इसलिए बसते हैं कि वहां पर रोजगार है। बेहतर चिकित्सा है। बेहतर शिक्षा है। बेहतर औद्योगिक क्षेत्र है। और सबसे जरूरी मूलभूत सुविधाएं हैं। जब रतलाम पिछले दो दशक से संभाग नहीं बन पाया। इस मुद्दे को राजनीतिज्ञों ने दमदार तरीके से नहीं उठाया। कोई प्रयास भी नहीं किया। बस चर्चा जरूर हुई लेकिन वह भी ठंडे बस्ते में जाकर बैठ गई। इसके बाद कोई सुगबुगाहट नहीं हुई।
बेहतर चिकित्सा सुविधा चाहिए तो जाओ बाहर
बात करें चिकित्सा सुविधा की तो सामान्य बीमारी का भी इलाज संभव नहीं है। जब देखो तब इधर-उधर रेफर करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता है जो चिकित्सालय चल रहे हैं। वह अपनी पूरी की पूरी मनमानी कर रहे हैं। इस पर प्रशासन का कोई नियंत्रण नहीं है। मन चाहे उतना मरीजों को लूट रहे हैं। उसके बाद उन्हें आगे का रास्ता दिखाने में भी पीछे नहीं हटते हैं। इसीलिए गांव के लोग उपचार के लिए रतलाम आने की बजाय सीधे इंदौर या बड़ौदा की ओर निकल जाते हैं, ताकि वहां पर कुछ तो चिकित्सा सुविधा सस्ती और अच्छी मिलेगी। और जो चिकित्सा के लिए बाहर नहीं जा सकते वह गुनाह तक कर बैठते हैं और अपने बच्चों को डाम लगा देते हैं। बेहतर चिकित्सा सुविधा के मामले में रतलाम का नाम कहीं से कहीं तक नहीं है। सांसद और विधायक बने जिम्मेदारों ने इस ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया।
यहां पर ऐसा कुछ बनाने की कोई शुरुआत नहीं
अब रही बात रोजगार वाली अच्छी शिक्षा की तो इस मामले में तो कुछ बात ही ना करें तो अच्छा है। केवल डिग्री लेने भर वाली शिक्षा, महाविद्यालय में उपलब्ध हैं। अन्य कोई एजुकेशन के लिए हायर सेकेंडरी करने के बाद विद्यार्थी इंदौर, पुणे या बैंगलोर की ओर कूच करते हैं, ताकि वहां रहते हुए उन्हें जॉब भी मिल जाए और ऐसा हो भी रहा है। रतलाम में रहते हुए 10000 की जॉब मिल जाए तो बहुत बड़ी गनीमत है जबकि बाहर रहने वाले विद्यार्थी पढ़ाई करते हुए भी 40 से 50 हजार रुपया महीना कमा लेते हैं। आईटी एजुकेशन के लिए उन्हें बाहर जाना ही होता है और जमाना आईटी की तरफ ही जा रहा है। डिजिटल इंडिया बन रहा है लेकिन रतलाम…? यहां पर ऐसा कुछ बनाने की कोई शुरुआत नहीं है। इंदौर ही देख लीजिए वहां पर आईटी पार्क है जहां पर देश-विदेश की बड़ी-बड़ी कंपनियां अपना व्यवसाय कर रही है आईटी इंजीनियर अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
मत दिलाओ झूठी दिलासा
1967 में उपकार फिल्म बनी थी जिसके लिए गीतकार इंदीवर ने गीत लिखा था। जोकि काफी प्रसिद्ध भी हुआ है।
होगा मसीहा…
होगा मसीहा सामने तेरे
फिर भी न तू बच पायेगा
तेरा अपनाऽऽऽ आऽऽऽ
तेर अपना खून ही आखिर
तुझको आग लगायेगा
आसमान में…
आसमान मे उड़ने वाले मिट्टी में मिल जायेगा
कसमे वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या'
इसमें कहा गया है कि आप कितने भी बड़े हो जाएं पर अपना पांव जमीन पर ही रखना। शौहरत और दौलत पलभर में नष्ट भी हो सकते हैं। आसमान में उड़ने वाले भी मिट्टी में ही मिलते हैं। इसलिए भूलकर भी अहं मत करो। जो जिम्मेदारी दी गई है। उसे पूरा करो। झूठी दिलासा मत दिलाओ।