महादेव महाकाल और उनका लोक
⚫ डॉ. विवेक चौरसिया
उज्जैन का गौरव भगवान महाकालेश्वर से हैं और महाकाल का गौरव उज्जैन से है। दोनों अनजाने काल से एक-दूसरे के पूरक हैं। उज्जैन के बिना महाकाल की और महाकाल के बगैर उज्जैन की कल्पना असम्भव है। आदिकाव्य रामायण के किष्किन्धा काण्ड के वाल्मीकि कृत श्लोक एक ओर नगरी व देश के रूप में इसकी परम् प्राचीनता प्रमाणित करते हैं तो दूसरी ओर महाभारत के वनपर्व में महाकाल का वन्दन सिद्ध करता है कि वे अनादिकाल से इसी नगरी में विराजमान हैं। उनके मंदिर के कोटितीर्थ का स्पर्श मात्र भी अश्वमेध यज्ञ का फल देने वाला है। विश्व के दो प्राचीनतम महाकाव्यों में ऐसे ही सराही गई है अवन्तिका की महिमा और इतनी ही श्रद्धा से गायी गई है महाकाल और उनके आँगन की दिव्यता। महाकाल इस नगर के अधिष्ठातृ देवता और इस समूचे मृत्युलोक को मोक्ष प्रदान करने वाले आदिदेव हैं।
यह अद्भुत है कि उज्जैन एक है मगर पुराणों में इसके नौ नाम हैं। कनकश्रृंगा, कुशस्थली, उज्जयिनी, अवन्ती, पद्मावती, कुमुद्वती, अमरावती, विशाला और प्रतिकल्पा। महाकाल के निवासार्थ स्वयं विश्वकर्मा ने इस नगरी को स्वर्ण शिखरों वाले भवनों से बनाया इसलिए यह कनकश्रृंगा है। ब्रह्मा और विष्णु ने इसे कुशस्थली नाम दिया। यह प्रत्येक कल्प में देवताओं, तीर्थों, औषधियों, बीजों एवं प्राणियों का अवन अर्थात् रक्षण करती आई इसलिए अवन्ती नाम से प्रसिद्ध हुई। महाकाल ने इसी भूमि से दुष्ट त्रिपुरासुर को उज्जित अर्थात् बुरी तरह पराजित किया तब से उज्जयिनी कहलाई। यहाँ पद्मा अर्थात् लक्ष्मी नित्य निवास करती है अतः यह पद्मावती है। पुष्पों की बहुलता के कारण कुमुद्वती और अमरों अर्थात् देवताओं के सदा निवासित रहने के कारण अमरावती है। विशाल भवनों के कारण विशाला है और हर युग में नित्य नवनिर्माणों के कारण प्रतिकल्पा के नाम से विभूषित है। तभी तो यह भारत भूमि की सात सबसे पावन पुरियों में एक मोक्षदायिका है, वराह पुराण में मणिपुर चक्र और अग्नि पुराण में पापनाशिका है। स्कंद पुराण में पुण्यनगरी और गरुड़ पुराण में मोक्षपुरी है। काशीखण्ड तभी तो कहता है कि यह नगर महाकाल की कृपा से आज तक कलियुग की बुराइयों से सर्वथा दूर है।
उज्जैन के नौ नाम हैं तो महाकाल के हज़ार हैं। शिवसहसनाम इसका साक्षात् प्रमाण हैं। गुरु सांदीपनि के आश्रम में ज्ञानार्जन के लिए आए भगवान श्रीकृष्ण ने इन्हीं सहस्रनामों के उच्चारण के साथ महाकाल की पूजा की थी। महाकाल इस नाभिदेश के स्वामी हैं अतः न्याय के पर्याय सम्राट विक्रमादित्य के अवन्तिकानाथ हैं। महाकवि कालिदास ने उन्हें महाकाल, चण्डीश्वर और उज्जयिनी नाथ सम्बोधित किया है। वे भोलेनाथ हैं, बाबा हैं, राजा हैं और राजाधिराज हैं। लोक ने उनके पुराणोक्त आशुतोष और महेश्वर से लेकर मनमहेश और घटाटोप नाम तक रख उनके निर्गुण और सगुण, अचल और चल सब रूपों को श्रद्धापूर्वक स्वीकारा और पूजा है। स्वयं महाकाल अपने भक्तों की भावुकता पर गदगद होते हैं।
महाकाल यहाँ विराजे हैं इसलिए इस नगर में कभी अंधेरा नहीं होता। यहाँ तक कि अमावस पर भी नहीं। अन्यथा कालिदास और बाणभट्ट जैसे कालजयी कलमकार भला क्यों लिखते कि ‘महाकाल मंदिर के निकटवर्ती प्रासादों में अमावस्या में भी चाँदनी छिटकी रहती है। इसलिए कि महाकाल के मस्तक पर चंद्रमा जो विराजमान हैं!’ गुणाढ्य से भास तक और राजशेखर से पद्मगुप्त तक, श्रीहर्ष से आदि शंकराचार्य तक और दण्डी से गोस्वामी तुलसीदास तक प्राचीन साहित्य का ऐसा कोई ‘सूरमा’ नहीं जो महाकाल और उनकी प्रिय महापुरी उज्जैन की यशगाथा का वर्णन करने से स्वयं को रोक पाया हो। सच तो यह है कि जिस-जिसने महाकाल की शब्दों से आराधना की, उस-उसकी कृतियाँ महाकाल की कीर्ति कथा की भाँति दिग्दिगंत तक व्याप्त हो गई। ऐसे सुखदाता, शांतिदाता, आनन्ददाता, मुक्तिदाता और यशदाता है त्रिलोक स्वामी भूतभावन योगीराज भूतेश्वर पशुपतिनाथ उमाशंकर श्री महाकाल महाराज। इतने दिव्य, इतने भव्य, इतने सहज, इतने समर्थ, इतने कृपालु और इतने दयालु हैं ब्रह्मांड की समस्त शक्तियों व सिद्धियों के एकमात्र स्वामी भगवान महाकाल।
महाकाल ने शिप्रा तट पर वन में अपना निवास बनाया हुआ है। पास ही रुद्रसागर है और मंदिर परिसर में कोटितीर्थ। एक करोड़ पवित्र नदियों और जलाशयों का जल जहाँ आकर मिलता है, वह कोटितीर्थ हैं। इसी जल से महाकाल को अभिषेक प्रिय हैं। मानो सबकी एक-एक बूंद स्वीकार कर वे सबको धन्य करते हैं। जल उन्हें पवित्र नहीं करता अपितु उनका स्पर्श पाकर स्वयं पवित्र और निर्मल होता है। तभी तो साक्षात् जगत् पावनी गङ्गा सदा उनका अभिषेक कर कृतकृत्य होती हैं और महाकाल गङ्गाधर कहलाते हैं।
उज्जैन में महाकाल ज्योतिर्लिंग रूप में विराजे हैं। शिवपुराण के अनुसार दैत्य दूषण का संहार करने के लिए प्रजा की पुकार पर शिवजी प्रकट हुए थे। तब से ज्योतिर्लिंग में समाए हुए हैं। एक कथा मत्स्य पुराण की है जिसमें कहा गया है कि पार्वती के अपहरण का प्रयास करने वाले दैत्य अंधक से शिवजी का युद्ध इसी महाकाल वन में हुआ था। उस अंधक का रक्त पीने के लिए शिव ने यहीं मातृकाओं की सृष्टि की थी। तब से वे उज्जैन में ही बसे हैं। यह भी कि पृथ्वी और आकाश के ठीक मध्य बिंदु पर महाकाल विराजित हैं। इसीलिए कालों के काल मृत्युंजय महाकाल के साथ समय के भी देवता हैं। इन्हीं महाकाल की कृपा से उज्जैन प्राचीनकाल में कालगणना का प्रमुख केंद्र रहा है।
महाकाल पहले वन में रहते थे। उनका पहला देवालय भगवान श्रीकृष्ण के पालक पिता नन्द से आठ पीढ़ी पहले उनके पूर्वज एक गोप ने तत्कालीन राजा चन्द्रसेन के युग में कराया था। मोटे तौर पर यह कोई साढ़े पाँच हज़ार बरस पहले ही घटना है। विक्रमादित्य के समय में मंदिर भव्यतम था और सदियों तक रहा। मुस्लिम आक्रांताओं ने इस मंदिर को तोड़ा और जब-तब फिर-फिर बनता रहा। आज का मंदिर सिंधिया रियासत के दौरान सम्भवतः साल 1760 में बना है। जिसमें समयानुकूल विस्तार यथा तथा हुए हैं।
महाकाल विराजे हैं, इसलिए शक्तिपीठ हरसिद्धि, गढ़कालिका, कालभैरव, चौसठ योगिनी, षड्गणेश और 84 महादेव सहित असंख्य दिव्य लिङ्गों में शिवशक्ति उज्जैन की भूमि को धन्य करती हुई यहीं वास करती हैं। यह संकेत कराती हुई कि जहाँ जगत् कल्याण के लिए हलाहल विष का पान करने वाले देवाधिदेव महादेव बसते हैं, वहाँ सहज ही सर्वत्र रिद्धि-सिद्धि छा जाती है। यही शिव का शिवत्व हैं और यही महाकाल की महिमा है।
साधो! जो अपने अमङ्गल की चिंता से रहित होकर सबके मङ्गल का चिंतन करते हैं, वे ही महादेव महाकाल हैं। उन्होंने विष को पिया ही नहीं, पीकर पचाया भी है। हम परोपकार का यह सूत्र उनसे ग्रहण कर सकें, इसीलिए शिवजी के महात्म्य का बारम्बार पारायण किया जाता है। इसी पारायण परम्परा में मध्यप्रदेश शासन ने वर्तमान महाकाल मंदिर के विस्तार के निमित्त एक ‘महाकाल लोक’ का निर्माण कराया है। करीब 350 करोड़ की लागत से बने इस नवनिर्मित कलात्मक संकुल का आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकार्पण करेंगे। इस संकुल में प्रदर्शित शिवजी की अपने प्रतिमाएँ उसी शिव चरित्र का प्रतिपादन करने वाली है, जिसके एक अंश को भी अंगीकार कर हम शिव कृपा पा सकते हैं।