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जीवन, दर्शन और मौजूदा हालातों के मद्देनजर रचनाकार रेणु अग्रवाल की रचनाएं झकझोरती है सहृदय मन को

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यही है जीवन

रेगिस्तान में नागफनी
तमाम प्रतिकूलता की
परवाह किए बिना
अपना वजूद खोज लेती है

रेत ही रेत चारों तरफ
और बूंद भी पानी के बिना
उसमें खिलते हैं लाल-
लाल फूल और फल

जहां ऊंटों की लम्बी कतारें
खानाबदोशों के कारवां
उस रेतीली मरूभूमि पर करते है
जीवन होने के हस्ताक्षर

ठीक इसी तरह मनुष्य
यदि ठान ले तो
हर तरफ पसरी प्रतिकूलताओं की
परवाह किए बिना
अपना अस्तित्व काम रख सकता है
वह अंखुआए बीज की तरह
फैला सकता है चारों
दिशाओं में अपनी शाखाएं
हरी पत्तियों से सराबोर

यही जीवन है जीवन
और यही है उसकी जीवंतता।

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उन्हें धकेला जा रहा वृद्धाश्रम की तरफ

बूढ़े माता- पिता अब
धकाए जा रहे
वृध्दाश्रम की तरफ
महानगरीय कॉलानियों में
भूले से ही दिखते हैं बुजुर्ग

कहां गए वे
जो कूबड़ी लिए टहला करते थे
घरों के बाहर और
आते-जातों का हाल-चाल
मोटी फ्रेम के चश्में से झांकती
अपनत्व भरी आंखों से
पूछ लिया करते थे

धूप की परछाईं देख
घड़ी के बिना भी वे
समय बता दिया करते थे
ठसकदार बहुरानी के तानों
उलाहनों से दुखीमन
अपने लिए कहीं एकांत
खोज लिया करते थे

कहां गए वे जो हाथों में
पंचांग पौथी लिए
ग्रहों की स्थिति का आकलन कर
घर-घर जा
चंद रूपयों की खातिर
आशा, निराशा, उम्मीदें बांटा करते थे
तीज, त्योहार, अमावस, पूनम
संक्रांति और भद्रा होने की
खबरों के वाहक कहां गए?

दीवार पर टंगा उदास कैलेंडर
रह गया अब प्रतीक मात्र
जन्मदिन और छुट्टियों की
सूचना देना रह गया उसका काम

मां, पिता, भाई, बहिन सहित
नाते रिश्तेदारों के जन्मदिन
मोबाइल में मनते हैं
केक कटते हैं, सेल्फी ली जाती हैं
तालियां बजती हैं और
तस्वीरें तत्काल फेसबुक की
नजर कर दी जाती हैं

होली, दिवाली, दशहरा
सिमटते जा रहे मोबाइल में
बचपना खो चुके
बच्चों की आंखें धंसे
जा रही मोबाइल में
अपनी उम्र से भी पहले
बहुत पहले वे बड़े
हो चुके मोबाइल में।

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बुरा वक्त कोसते हुए

अपने शहर में कॉलोनी का
वह छोर जहां
गरीबों की बस्ती अपनी
शरुआत करती है
वहीं एक कुम्हार को
मिट्टी के घड़े, दिए, कुल्हड, सुराही
और किसम-किसम के खिलौने-
मसलन घट्टी, चक्की
सिपाही, दूल्हा-दुल्हन बनाते
मैं अक्सर देखा करती थी
मिट्टी से उठती सौंधी खुशबू
और चॉक पर रखे जाने के पहले
उसे तैयार करने की
कठिन प्रक्रिया से उसकी
गहरी रिश्तेदारी थी

इतवारी हाट को वह कुम्हार
अपनी कला के नायाब
नमूने बेचने ले जाता
जहां गांव देहात के
बच्चों के दिल बहुत ललचाते
उसके बनाए खिलौने

उसी बस्ती में एक मनिहार भी
सपत्निक रहा करता था
जिनके बनाए कंगन, चूड़ी और
पाटलों के बिना महिलाओं का
श्रृंगार आधा-अधूरा था
शादी-ब्याह के दिनों
उनकी गुजारे लायक
कमाई जैसे-तैसे हो जाती थी

लेकिन वक्त के करवट बदलने
और मशीनीकरण की दौड़ ने
उन्हें बहुत पीछे धकेल दिया
कुम्हार और मनिहार के
धंधे चौपट हो गए

बस्ती के अनेक लोग
धीरे-धीरे मजदूरी के लिए
शहरों के हवाले हो चुके हैं
अब वहां इक्के दुक्के
बूढ़े – बुजुर्ग नजर आते हैं
लाठी टेकते हारे थके
जर्जर काया लिए
जमाने भर को गालियां देते
अपना बुरे वक्त कोसते हुए।

⚫ रेणु अग्रवाल, बरपाली, उड़ीसा

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