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खरी-खरी : लापरवाही भी उनकी, पीठ भी उनकी, मिलनी चाहिए सजा या शाबाशी, जिन्हें जहां से हटाया था, वहां पर पुनः मौजूद, सीखे समय प्रबंधन उनसे

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हेमंत भट्ट

एक स्कूल जाने वाले बच्चे को भी अभिभावक कहते हैं कि टिफिन बॉक्स का ध्यान रखना, पानी की बॉटल वापिस लाना। कुछ चीज भूल न जाना। यह न सिर्फ कहते हैं बल्कि जब वह आता है तो देखते भी हैं कि जो लेकर गया था, वह वापस लाया है या नहीं। यदि विद्यार्थी कुछ भूल गया है, तो तत्काल स्कूल में संपर्क करते हैं और वह पुनः प्राप्त करते हैं। जो जिम्मेदारी दे रखी है, उस मामले में हमारा जिला प्रशासन दशकों से लापरवाही बना हुआ है। प्रशासन की लापरवाही के चलते दशकों से सरकारी जमीन अतिक्रमणकारियों के कब्जे में है। अब जिम्मेदार अतिक्रमणकारियों के चंगुल से मुक्त करा कर वाहवाही लूट रहे हैं। पीठ पर शाबाशी लेने के जतन कर रहे हैं। आखिर यह समझ में नहीं आता है कि लापरवाह जिला प्रशासन के जिम्मेदारों को तो सजा मिलनी चाहिए लेकिन वह अपने हाथों से ही अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। यह समझ से परे है कि गलती करने पर शाबाशी की चाह क्यों रख रहे? इतना ही नहीं मुख्यमंत्री भी प्रदेश भर में कामयाबी का डंका ठोक रहे हैं कि हमने इतनी जमीन अतिक्रमणकारियों के कब्जे से मुक्त कराई, जबकि होना यह चाहिए था कि तत्कालीन जिम्मेदारों पर कार्रवाई होनी चाहिए थी कि आखिर सरकारी जमीन उनके कब्जे में आई तो कैसे आई? क्यों नीचे से ऊपर तक की कर्मचारी कार्य में लापरवाह बने रहे। जनप्रतिनिधि भी इस मामले में मौन साधे हुए हैं।

उन पर भी कार्रवाई नहीं, नाम भी उजागर नहीं

सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करने के मामले में खास बात तो यह है कि जिन प्रभावशाली लोगों के बल पर करोड़ों की जमीन पर जिन्होंने कब्जा कर रखा था, उन पर भी जिला प्रशासन कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। यहां तक कि उनके नाम भी उजागर करने में परहेज कर रहा है। समाज में ऐसे लोग हैं जो सरकारी जमीनों पर अपना आधिपत्य जमाए हुए हैं। उससे कमाई कर रहे हैं। साल दर साल फसलें ले रहे हैं। मगर उन पर न तो एफ आई आर हुई और ना ही कोई वसूली के लिए फरमान जारी हुए।

आखिर ऐसा कैसे हो सकता है?

उन्हें कोई सबक नहीं सिखाया जा रहा है। आखिर प्रशासन की इतनी दरियादिली क्यों है। लगता है उनके ऊपर सब गांधी दर्शन का ही कमाल है। वरना सरकारी कुछ हेक्टेयर या कुछ बीघा जमीन तो दूर कुछ फीट जमीन पर भी कोई कब्जा नहीं कर सकता।

जिम्मेदारों का आशीष है ऐसे लोगों पर

यह भी सब जानते हैं कि सरकारी जमीन को हथियाने में जिम्मेदारों का आशीष मिलना बहुत जरूरी है अन्यथा ऐसा कोई नहीं कर सकता है। और जिम्मेदारों का आशीष भी बिना भेंट पूजा के तो संभव है नहीं। सालों से है दस्तूर चल रहा है। मुंह दिखाई की रस्म अदा करते चलो और अपना काम निकालते चलो। तभी तो दशकों से प्रशासन की नींद नहीं खुली और करोड़ों की जमीन अतिक्रमणकारियों के कब्जे में बनी रही।

जन सुविधा से नहीं सरोकार

शहर में दुकानदारों द्वारा आम जनता की सुविधा की जगह पर किया गया अतिक्रमण जिला प्रशासन द्वारा हटाया गया। इससे आमजन काफी खुश भी हो गए मगर दुकानदार वापस उसी जगह पर आ गए हैं, जहां से उन्हें हटाया। चाहे माणक चौक हो या गणेश देवरी की कंबल पट्टी। दुकानदार फिर से अपना सामान सड़क पर रखने लगे हैं। आमजन को आवागमन में बाधा उत्पन्न ना हो रही है। जहां जहां अतिक्रमण तोड़ा गया था, वहां पर पुनः बनाया जा रहा है। रविवार को माणक चौक, शहर सराय सहित अन्य क्षेत्रों में दुकानदार पुनः जैसे थे वैसे स्थिति में आने लग गए। ठेला गाड़ी पर व्यापार करने वाले का तो भगवान ही मालिक है। वह जब चाहे जहां चाहे खड़े हो जाते हैं, उन्हें भी रोकने वाला कोई नहीं है नतीजतन आमजन परेशान हैं। यातायात प्रभावित है मगर इसकी चिंता नहीं है।

लोडिंग अनलोडिंग का कोई समय नहीं

बाजारों में दुकानदारों द्वारा सामान की अनलोडिंग और लोडिंग मनमाने तरीके से की जा रही है। व्यस्ततम व्यापारिक क्षेत्रों में छोटे-बड़े वाहनों द्वारा माल उतारने और चढ़ाने का क्रम बेरोकटोक चलता रहता है। इससे यातायात प्रभावित होता है, मगर यातायात महकमा इस ओर ध्यान नहीं देता है। ना दुकानदार पर चालानी कार्रवाई और नहीं वाहन पर। वे भी बस देखते हुए चलते बनते हैं।

समय प्रबंधन का सबक

अमूमन आयोजनों में यही होता है कि समय प्रबंधन का ध्यान नहीं रखा जाता है। एक से डेढ़ घंटा कार्यक्रम बाद में शुरू होता है और खत्म होने का नाम नहीं लेता है। चाहे यह कार्यक्रम सरकारी हो या फिर निजी, राजनीतिक हो या धार्मिक। ऐसे कार्यक्रम ना तो समय पर शुरू होते हैं और ना ही समाप्त होते हैं और फिर आयोजक कहते हैं कि लोगों की उपस्थिति नहीं रहती है। मगर समय प्रबंधन को भूलने वाले लोगों को साहित्यकारों की टोली “सुनें सुनाएं” कार्यक्रम के तहत समय प्रबंधन का सबक सिखा रही है। पिछले 4 महीने से शहर में “सुनें सुनाएं” के तहत कार्यक्रम प्रति रविवार को आयोजित हो रहे हैं। खास बात यह है कि इस कार्यक्रम की शुरुआत ठीक 11:00 बजे होती है और 12:00 बजे समाप्त हो जाता है। इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए सभी लोग 10:50 पर आयोजन स्थल पर मौजूद हो जाते हैं। कुर्सी पर बैठ जाते हैं और जैसे ही 11 बजती है कार्यक्रम शुरू। 1 घंटे के कार्यक्रम में साहित्य से सरोकार रखने वाले गदगद होते हैं। उन्हें भी लगता है कि वह एक सार्थक कार्यक्रम में मौजूद हुए और उन रचनाकारों को सुनने का अवसर मिलता जिनकी किताबें आसानी से मिलना मुश्किल है। ऐसे आयोजन की सर्वत्र प्रशंसा हो रही है कि समय प्रबंधन के मामले में 1 मिनट भी उधर से उधर नहीं होता। किसी भी आयोजन में जाने वाले ऐसे तमाम मुख्य अतिथियों को चाहिए कि वे आयोजन में समय पर पहुंचे ताकि लोग भी उस का आनंद उठा सकें, देर से पहुंचकर अपने वीआईपी होने या व्यस्त होने का सबूत देने की जो कुसंस्कृति उनमें आ गई है। उसे अब उन्हें भूलना होगा। समय प्रबंधन सीखना होगा। समय प्रबंधन की दुर्गति के कारण ही अच्छे-अच्छे आयोजन फेल होने के कगार पर आ जाते हैं।

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