स्मरण : मित्र ! मुंहफट… मिलनसार…
⚫ उनकी ज़िंदगी का एक खंड यारबाज़ी का भी रहा , जिसमें निर्मल शर्मा, जय किरण, मांगीलाल यादव , दिनकर सोनवलकर जैसे कई सारे साहित्यकार उनके साथ अपनी जवानी के दिनों में बहुत सक्रिय रहे। अमूमन कोई बूढ़ा आदमी अपना बुढ़ापा छिपाकर सदैव युवा दिखने की चाह रखता है मगर महेश जी अपने युवा काल से ही ‘बासाब’ के रूप में पहचाने गए। कई खासियतों ने उन्हें युवा काल से ही ‘बासाब’ बना दिया और यही ‘बासाब’ उनकी पहचान बन गया । वह अपने मित्रों के बीच इसी नाम से सदैव पुकारे और जाने जाते रहे।⚫
⚫ आशीष दशोत्तर
कुछ लोग विरले होते हैं। उनकी ज़िन्दगी जीने का अंदाज़ अलग होता है। उनकी नज़र में ज़िंदगी के मायने अलग होते हैं। वे जानते हैं कि ज़िंदगी के हसीन लम्हें कहां से चुराए जा सकते हैं। वे यह समझते हैं कि तमाम तकलीफों के बीच खुशी कहां मौजूद रहती है। वे यह मानते हैं कि बहुत ख़राब वक़्त में भी कहीं कुछ अच्छा बचा रहता है। इन्हीं सब की परख जो कर लेते हैं वे अपनी ज़िंदगी को एक नया आयाम दे जाते हैं। उनकी ज़िंदगी कई सारे सबक दे जाती है । महेश दशोत्तर जी ‘बासाब’ की भी ऐसी ही शख्सियत थी। 80 बरस की ज़िंदगी में उन्होंने जो कुछ भी किया उस पर आज विराम लग गया।
रिश्तो के लिहाज से देखें तो वे मुझसे कई रिश्तों से जुड़े थे, मगर उन्होंने ख़ुद के और मेरे दरमियां सिर्फ़ मित्र का रिश्ता रखा ,और वह भी साहित्यिक मित्र का। वे सामाजिक बंधनों, रीति-रिवाजों के झंझटों से बहुत अलग हटकर अपनी बात किया करते थे। पोरबंदर के समुद्र तट पर ‘अज्ञेय’ के साथ टहलते हुए जब वे ‘नदी के द्वीप’ पर बात कर रहे होते तो उनका अलग अंदाज़ होता । शहीदे आज़म भगत सिंह की स्मृति सभा में जब वे अपने मित्र जयकिरण को याद कर रहे होते तो उनके शब्द बहुत मार्मिक होते । जब वे अपने प्रिय मित्र मांगीलाल यादव की स्मृति सभा में बोल रहे होते तो उनके वाक्यों से मांगीलाल जी का किरदार खुद-ब-खुद सामने आ जाता।
वे गहन अध्येता थे। किसी भी पुस्तक को पढ़ते तो पूरी लगन के साथ। उसे सदैव याद रखते और समय आने पर उस के संदर्भों का उल्लेख भी करते । उनकी ज़िंदगी का एक खंड यारबाज़ी का भी रहा , जिसमें निर्मल शर्मा, जय किरण, मांगीलाल यादव , दिनकर सोनवलकर जैसे कई सारे साहित्यकार उनके साथ अपनी जवानी के दिनों में बहुत सक्रिय रहे । अमूमन कोई बूढ़ा आदमी अपना बुढ़ापा छिपाकर सदैव युवा दिखने की चाह रखता है मगर महेश जी अपने युवा काल से ही ‘बासाब’ के रूप में पहचाने गए। विचारों में परिपक्वता, मित्रों में बहुत गंभीर बात करना और किसी भी मुश्किल काम को करने के लिए जुट जाना इन्हीं सब खासियतों ने उन्हें युवा काल से ही ‘बासाब’ बना दिया और यही ‘बासाब’ उनकी पहचान बन गया । वह अपने मित्रों के बीच इसी नाम से सदैव पुकारे और जाने जाते रहे।
उदाहरण रहे उनकी जीवनशैली के
उनके युवा काल के कई प्रसंग वे सुनाया करते, जिसमें किसी मित्र के प्रेम विवाह के लिए किए गए प्रयास, किसी मित्र का विधवा स्त्री के साथ विवाह करवाना और यह भी सब अपने घर में ही, यह उनकी जीवन शैली के ही उदाहरण रहे। पंद्रह दिन पूर्व जब उन्हें अपनी किताब ‘सम से विषम हुए’ भेंट की तो उन्होंने कहा कि ‘आपके सम विषम मिलकर पूर्णांक बनें’।
उन्होंने अपने पुत्रों को समझा मित्रों की तरह
उनकी जीवन शैली बहुत स्पष्ट रही । मित्र उन्हें ‘मुंहफट’ भी कहा करते थे । वह किसी भी बात को दिल में नहीं रखते और सभी के सामने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया करते थे । समयबद्धता के साथ जीवन जीना कोई उनसे सीख सकता था। जिस वक़्त घूमना है उसी वक़्त घूमना है। जिस वक़्त चाय पीना है उसी वक़्त चाय पीना है । जिस वक़्त भोजन करना है उसी वक़्त भोजन करना है । इस दौरान कोई लाट साहब भी आ जाए तो उनका क्रम बाधित नहीं होता । यह उनकी समयबद्धता थी। उन्होंने अपने जीवन को जीने के लिए कुछ मानक भी निर्धारित किए हुए थे । मसलन उन्होंने अपने पुत्रों को मित्र की तरह समझा । उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया और अपनी मनमर्जी से अपने क्षेत्र को चुनने का अवसर दिया । साथ ही यह भी कहा कि सेवानिवृत्ति के बाद मेरी अपनी ज़िंदगी अपनी होगी । उसे मैं अपनी तरह जिऊंगा ।अपने शहर में अपने मित्रों के बीच रहूंगा। जब मन करेगा जब पुत्रों के पास जाऊंगा। जब मन करेगा सभी को अपने पास बुला लूंगा । यही जीवन शैली उनकी ज़िंदादिली की मिसाल बनी । एक बार उन्होंने अपनी अटैची में से निकालकर तीन चित्र बताए। एक चित्र उनका स्वयं का था, दूसरा उनकी पत्नी (सुरेखा दीदी) का और तीसरा चित्र दोनों पति-पत्नी का एक साथ । चित्र की साइज़ भी काफी बड़ी थी। कहने लगे, यह मरने के बाद के लिए तैयार की है डियर। आदमी के मरने के बाद घरवालों को उसकी ठीक-ठाक फोटो नहीं मिल पाती है और वह कोई सी भी फोटो टांग लेते हैं । अपने साथ यह दिक्कत नहीं होगी ,क्योंकि अपने पहले से ही पूरी तैयारी कर रखी है । इस फोटो में अपन ठीक-ठाक दिख रहे हैं और यह अपनी पसंद का फोटो बच्चे बाद में घर में लगाएंगे तो कम से कम अपने को संतोष रहेगा कि अपन मरने के बाद भी ठीक-ठाक दिख रहे हैं।
जो भी होता कह देते बड़ी बेबाकी से
इस तरह के कई प्रसंग उनके जीवन के रहे जो बड़ी बेबाकी से कह दिया करते थे। यह उनकी मुखरता भी थी और स्पष्टवादिता भी । शायद हर किसी को जीवन में इतना ईमानदार होना ही चाहिए।
महेश जी के जीवन के और भी कई सारे आयाम हो सकते हैं। उनसे जुड़े लोग हैं उनके जीवन को कुछ अलग दृष्टि से देखते रहे हों, मगर एक मित्र के नाते मैंने उनसे काफी कुछ सीखने की कोशिश की । आज ऐसा साहित्यिक मित्र नहीं है । उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
⚫ आशीष दशोत्तर