सामाजिक सरोकार : शीर्ष चिंन्तन “मातृ देवो भवः,पितृ देवो भवः” में सुनाई देने लगी सिसकियां
⚫ त्रिभुवनेश भारद्वाज
रतलाम में जब एक माँ ने कलेक्टर साहब के सामने बेटे बहू की प्रताड़ना से परेशान होकर आत्मदाह की गुहार लगाई तो भारतीय मनीषा के शीर्ष चिंन्तन”मातृ देवो भवः,पितृ देवो भवः”में सिसकियां सुनाई देने लगी ।युग की प्रवर्तना है और भारतीय परिवारों की अंदरूनी आत्मीयता के लगातार क्षरित होने से भयावह स्थिति समक्ष उपस्थित है। जिन्होंने अपने जीवन का श्रेष्ठ अपनी सन्तान को दिया है। सूखते भावों की मरुभूमि पर दिव्य प्रयाण के पूर्व संसार की स्मृतियों को संजों रहे हैं।
याद रह गई तो पुनरपि जन्म से मुक्ति चाहेंगे। कठिन संसार।असार जगत। अकथनीय पीड़ाएं। मन में वेदना और मुख पर मुस्कान। कभी माता पिता से सन्तान डरती है। आज सन्तान से माता पिता डरते हैं। ये सबकुछ कोई एक दिन में नहीं हुआ। पीढ़ी दर पीढ़ी अस्मिता और पारिवारिक मूल्यों को त्यागा गया।
निर्लज्जता को सलज्जता में मिलाकर अंगीकार किया गया। माता पिता का बोझ बन जाना अप संस्कृति के पदार्पण का संकेत है। जब समय भौतिक विकास की छाती पर खड़ा होता है तो भोग और स्वार्थ की वंदना आरम्भ होती है। स्वयं के जीवन की महत्ता को सर्वाधिक मान देने पर किसी दूसरे के जीवन की आवश्यता को समाप्त करता है।
माता और पिता का परिवारों से विदा होना संस्कार, नैसर्गिक त्याग, प्रेम, अपनत्व, अनुशासन और परस्पर कर्त्तव्य परायणता का परिवारों से विदा होना है।यदि भगवान स्वयं सन्तानों के द्वारा उपेक्षित, प्रताड़ित, अपमानित और नारकीय जीवन जीने वाले माता पिताओं की सूची जारी करे, तो हतप्रभ कर देने वाला दृश्य सामने आएगा।अनेक सुप्रतिष्ठित परिवारों में सबसे पहला सम्मानित व्यक्ति आज एक काल कोठरी में बंद होकर जो मिले सो खाने और अपनी मृत्यु की पल पल प्रतीक्षा करने को विवश है।माताएं अति सामाजिक और शिष्ट दिखाई देने वाली बहुओं के बर्ताव और वाचालता से नित्य ही मरती और फिर किसी न किसी मोह के कारण जीवित होकर खड़ी होती अस्ताचल तक का समय काट रही है।
आज परिवारों के पास साधनों के नाम पर सबकुछ है लेकिन नहीं है तो बस जड़ों का सम्मान नहीं है।हर तीसरे परिवार में माता पिता अपनी ही बनाई पीढ़ी के हाथों खून का घूंट पीकर नितांत उपेक्षित जीवन जी रहे हैं ।यदि इन सबकी आत्म दाह या इच्छा मृत्यु की अर्जी शासन के सामने आए तो अनेक परिवारों की विडम्बनाएं भी सामने आएगी।हमारे भारतीय परिवारों में माता पिता और बुजुर्ग पीढ़ी का इतना सम्मानित स्थान था कि जब तक बड़े आगे नहीं आए कोई काम ही नहीं होता था।
घर में शादियां बड़े बूढो को देखकर ही की जाती थी। विजातीय विवाहों का दौर नहीं था। सामाजिक कसावट ऐसी थी कि मजाल जो किसी घर में बुजुर्ग के रजा के बिना कोई पत्ता हिल जाए।मैंने स्वयम ने देखा है पिता गलती होने पर अपने उम्रदराज बेटे को तमाचा मार देते थे और बेटा कभी इस बात को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़कर मरने मारने पर उतारू नहीं होता था।बहुएं साँसों को उलाहने नहीं देती थी।संयुक्त परिवार में मुखिया की चलती थी।घर की साफ सफाई,पानी का प्रबंध और कई लोगों के खाने की व्यवस्था बहू करती थी।
सांस लेने का समय नहीं होता था फिर भी खुश और स्वस्थ। आज कितना कुछ बदल गया है। डांटने पर बेटे को इतना बुरा लगता है कि पिता की तरफ देखना ही बन्द कर देता है और जरूरत पड़ने पर आगे बढ़कर पिता को अपने बेटे से माफी मांगनी पड़ती है।बेटे अपने पिता के प्रति देवतुल्य सम्मान तो दूर बल्कि खुन्नस रखते हैं। वो ये भूल जाते हैं कि वो जो कर रहे हैं उनको अपनी पीढ़ी से इससे कई गुना ज्यादा भोगना है। मैं जो महसूस करता हूँ वही लिखता हूँ। सच पर कैसी पर्देदारी और क्यों?अच्छी बहुएं गिनती की होगी अधिकांश अपने शौक मौज पूरा करने के लिए परिवार का विग्रह करना और केवल अपने लिए सबकुछ होने की स्वार्थ भावना से काम करती है। पति के साथ अपनी छोटी सी टूच्ची दुनियां बसाती है और सबसे पहली तिलांजलि में साड़ी होती है और सबसे पहली खरीददारी जीन्स टॉप, सलवार कुर्ती और आधुनिक वस्त्र। इसे वो आजादी का जश्न कहती है। घर के खालीपन को भरने के लिए महंगे कुत्ते लाती और दिन रात उनकी सेवा में लगी रहती है ऐसी आदरणीय बहुओं से समाज भरा पड़ा है। उन्हें पता ही नहीं कि उनका अंधा आज फिर एक घनघौर काले कल की रचना कर रहा है।ॐ नमः शिवाय।
⚫ त्रिभुवनेश भारद्वाज