वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे पुस्तक चर्चा : आमजन की पीड़ा को उजागर करती आशीष दशोत्तर की कविताएं -

पुस्तक चर्चा : आमजन की पीड़ा को उजागर करती आशीष दशोत्तर की कविताएं

1 min read

संजय परसाई ‘सरल’

आशीष दशोत्तर का दूसरा काव्य, संग्रह ‘तुम भी?’ हाल ही में न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। गीत, गजल, लघुकथा, व्यंग्य,कहानी सहित अलग-अलग विधा में लगभग 20 पुस्तकों के प्रकाशन के पश्चात कविताओं पर केंद्रित उनका यह दूसरा काव्य संग्रह है। ‘तुम भी?’ काव्य संग्रह की कविताओं में विविध विषय उभर कर आते हैं लेकिन अधिकांश कविताएं आमजन की पीड़ा व समस्याओं के इर्द-गिर्द विचरण करती नजर आती है। अपनी रचनाओं में एक अलग ही सोच विकसित करते हुए ‘कभी ऐसा हो’ कविता में कहते हैं।

तानाशाह सभ्यता को बर्बाद करने का सोचे
उससे से पहले सभ्यता तानाशाह को
दफन कर दें इतिहास के पन्नों में
ईमानदारी और भाईचारे के पथ पर चलते और व्यवस्थाओं पर कटाक्ष करते हुए आशीष कहते हैं।
झूठों के बीच खड़ा होता हूं और झूठ नहीं बोल पाता
अपने बॉस के लिए किसी गरीब से घूस नहीं ले पाता
तो मात खा जाता हूं
हर बार मात खाकर भी मैं जिंदा कैसे हूं।
‘गुंजाइश’ कविता में बच्चों के प्रेम, प्यार और स्नेह की मिसाल देते हुए यह कहने का प्रयास करते हैं कि यदि बच्चों को बचपन से ही उचित संस्कार दिए जाए तो बैर, नफरत या रंजिश की गुंजाइश कहां बचती है।
ऊपर नीला आसमान
नीचे हरी भरी धरती आसपास खिलखिलाते बच्चे
हाथों में कलम और किताब
मासूम चेहरे पर ढेर सारी मुस्कान
इन सबके बीच आखिर कहां है गुंजाइश
बैर,नफरत या रंजिश की?
‘पलायन’ कविता में रोजी-रोटी के लिए किए जा रहे पलायन की विवशता और व्यवस्थाओं की पोल खोलते वे कहते हैं।
पूरे कुनबे के साथ न जाने कब से जा रहे हैं सोयाबीन खाने
आज तक एक दाना नहीं नसीब हो सका है इन्हें मगर यह जा रहे हैं
साल दर साल इसी तरह तमाम योजनाओं की पोल खोलते
सफलता के सारे आंकड़ों को धता बताते हुए
ये अब भी रोजी रोटी के लिए कर रहे हैं पलायन
वहीं ‘खैरियत’ कविता में भी कुछ इसी मिजाज को अंकित करते है।हमने पूछा
कैसे हैं हाल?
वे बोले सब खैरियत है
स्थिति नियंत्रण में है तो
क्यों लगी है हर मोहल्ले में खाली बर्तनों की कतार
क्यों नहीं टपकी नलों से कई दिनों से पानी की धार
आखिर कब तक करना होगा इस तरह इंतजार?आशीष की कविताओं के विषय पाठकों को सोचने पर विवश करते हैं और वे आमजन की पीड़ाओं से रूबरू होते हुए दुखी भी होते हैं। वहीं सिस्टम की लचरता पर करारा व्यंग्य भी करते हैं।
अब वह अपनी दिशा तय नहीं कर सकता
उसे जाना होता है उसी दिशा में जिसमें उसे धकेला जाए
उसका इस्तेमाल कर लोग पा लेते हैं अपना लक्ष्य
अब पत्थर हो चुका हैअर्ध रात्रि में सोते बच्चों और महिलाओं पर
बरसाई जा रही हैं लाठियां क्योंकि
इसी से बचा रहना है लोकतंत्र
‘हाशिए पर’ कविता में एक कवि के ह्रदय की पीड़ा भी बखूबी व्यक्त की है।बेहतर कही जा रही इस दुनिया में
कई चीजें धकेली जा रही है हाशिए पर
इसी दुनिया में कथा प्रवचन और तकरीरों के लिए
उपलब्ध है गली, चौराहे और मनचाहे स्थल
मगर कविता पर बातचीत के लिए नहीं बची है कोई जगह
कैसी विडंबना है कि एक कवि के घर
पहुंचने के लिए बताना पड़ रहा है
किसी शराब माफिया के घर का लैण्डमार्क
क्या यह चिंताजनक नहीं है
कि बेहतर होती दुनिया में क्यूं कई चीजें
धकेली जा रही है हाशिए पर?
आगे वे कहते है-
बुरा से बुरा तानाशाह हो या दुनिया का
सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मुल्क
सबको डर लगता है किताबों से
किताबों का आप के झोले में होना
अपराध है इस वक्त
इसलिए अपने झोले में किताबें रखने वालों
तुम्हारा मरना तय है
मगर किताबों को नहीं मार सकता है कोई
न आज…. न कलअधिकांश रचनाकारों की रचनाएं अपने आसपास के परिवेश, सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था पर ही केंद्रित होती है और उसी का एक पक्ष होता है माता-पिता। सर्वाधिक रचनाकार माँ को लेकर तो रचनाएं करते ही हैं लेकिन पिता के पक्ष पर बहुत कम लिखा गया है। इसी बात को प्रमुखता देते हुए आशीष ने ‘अगर पिता होते’ कविता में उनके होने न होने के फायदे को और नुकसान का बखूबी वर्णन किया है।पिता नहीं जान पाते थे
कि
उनका होना कितना
जरूरी है हमारी कायनात के लिए
कि
उनके होने से ही
आंगन में फुदकती है चिड़ियां
कि
उनके हाथों से ही खाती है
गाय रोटी
कि
उनकी पूजा से खुश
होते हैं भगवान
कि
उनके चढ़ाए जल से ही तृप्त
होता है पीपल
कि
उनके हाथों में बंधी घड़ी से
चलता है घर का वक्त

अतः यह कहा जा सकता है कि आशीष की कविताएं और उनके विषय व्यक्ति को सोचने पर विवश करते हैं। पीड़ा, व्यंग्य, आक्षेप, स्नेह, दुलार के साथ ही व्यवस्थाओं पर करारा प्रहार करने की उनकी शैली पाठकों को भाती है। वे बात-बात में ऐसी अनकही बात कह जाते हैं कि व्यक्ति जड़वत हो सोचने पर विवश हो जाता है। आशीष के ‘तुम भी?’ संग्रह की कविताएं तो विविधरंगी है ही, साथ ही आकर्षक कलेवर, शुद्ध टंकण व छपाई भी पाठकों को आकर्षित करती है।

संजय परसाई ‘सरल ‘

⚫ समीक्षक : संजय परसाई ‘सरल’
118,शक्तिनगर, गली न. 2 रतलाम (मप्र)
मोबा. 98270 47920

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *