शख्सियत : साहित्य सृजन के लिए चुनौति, बाजारीकरण का अश्वमेघी घोड़ा दौड़ रहा खुले आम : शुभा मिश्रा

वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श वैश्वीकरण ने ले लिया है। कॉर्पोरेट पूंजी को खुली छूट है और बेहतर काव्य की सम्भावनाओं को कुचलते हुए बाजारीकरण का अश्वमेघी घोड़ा खुलेआम घूम रहा है, जो साहित्य सृजन के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। हमारे समय के लव-कुश निरस्त्र हैं और वाल्मीकि संशयग्रस्त। लेकिन इन चुनौतियों का सामना करते हुए भी रचनाकारों की सृजन प्रक्रिया जारी है और लगातार कविता सहित साहित्य की अन्य विधाओं में लेखन जारी है।⚫

नरेंद्र गौड़

’‘आस्कर वाइल्ड ने एक जगह कहा है, अंततः समस्त कलाएं सारहीन हैं। उनके इस कथन के बहुत गहरे निहितार्थ हैं। असल में कविता को जीवन में अन्य भौतिक वस्तुओं की तरह नहीं बरता जा सकता और न ही ये हमारे लिए हवा, पानी और भोजन की तरह अनिवार्य है। कलाओं को महज उपयोगितावादी नजरिए से देखेंगे तो कुछ हासिल नहीं होगा।’’

यह कहना है छत्तीसगढ़ के जिला जशपुर की अधिवक्ता तथा जानीमानी कवयित्री शुभा मिश्रा का। इनका मानना है कि ’’आज हमारा समय परिवर्तन के तीव्र दौर से गुजर रहा है। यह सारा परिवर्तन सकारात्मक नहीं, बहुत सारा अनचाहा भी है। अंतरराष्ट्रीय महाशक्तियां गरीब देशों पर अपनी प्रभुसत्ताएं लाद रहीं हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श वैश्वीकरण ने ले लिया है। कॉर्पोरेट पूंजी को खुली छूट है और बेहतर काव्य की सम्भावनाओं को कुचलते हुए बाजारीकरण का अश्वमेघी घोड़ा खुलेआम घूम रहा है, जो साहित्य सृजन के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। हमारे समय के लव-कुश निरस्त्र हैं और वाल्मीकि संशयग्रस्त। लेकिन इन चुनौतियों का सामना करते हुए भी रचनाकारों की सृजन प्रक्रिया जारी है और लगातार कविता सहित साहित्य की अन्य विधाओं में लेखन जारी है।

कविताओं का विस्तृत संसार

शुभाजी की कविताओं का संसार विस्तृत और प्रगतिशील एवं एक हद तक जनवादी भी है। इनकी कविताएं रचाव का एक महत्वाकांक्षी उपक्रम है। यह सही है कि रचना एक जोखिम भरा और चुनौतीपूर्ण कार्य है और इसे शुभा की कविताएं स्वीकार करती हुई आगे बढ़ती हैं। उनकी कविताओं में गांव देहात का संघर्षपूर्ण जीवन शिद्दत के साथ उजागर हुआ है। इन रचनाओं में ग्रामीण जीवन के संघर्ष के अनेक चित्र हैं, लेकिन गांव वैसा नहीं है जैसा कि पंद्रह-बीस साल पहले हुआ करता था, वरन् यह कविताएं वहां आए बदलाव को रेखांकित करती हैं।

खरे पसीने से उपजी कविताएं

शुभाजी दावा करती हैं कि उनकी कविताएं खरे पसीने से रची गई है और इन्हें सोफे पर पसरे एसी की हवाखोरी करते हुए नहीं लिखा गया है। जाहिर है हमें उनके इस आत्मकथन पर भरोसा कर लेना चाहिए, क्योंकि खरी कविताओं का हरएक शब्द कुछ अलग किस्म का हुआ करता है।

कवि की तरह जीना कठिन

शुभाजी का कहना है कि कविता को शुरू करना बहुत उत्साहवर्ध्दक और सरल है, लेकिन उसे अंत तक सांसों की तरह साधना बहुत कठिन है। कविता लिखने से भी अधिक कठिन है, एक कवि की तरह जीना और कई बार जीवनभर कविता लिखकर भी व्यक्ति कवि नहीं हो पाता। हम दुनिया में रात- दिन, इतने लिप्त हैं कि लेन-देन में आगे- पीछे हमारी काव्य क्षमताएं क्षरित होती रहती हैं। शुभा की कविताओं में भारत की एक कामकाजी और घरेलु महिला का संसार भी बोलता है। इनका कहना है कि बचपन के दिनों की स्मृति को अपनी कविताओं का हिस्सा बनाना चाहती हैं। कविताओं में खेत और खलिहानों को भी लाना हैं, लेकिन किसानों के जीवन संघर्ष की ध्वनि के साथ, क्योंकि किसान भारत की आत्मा हैं और रीढ़ भी हैं’’।

पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन

शुभाजी की कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इनका एकल कविता संकलन ’मन्नतों के धागे’ (बोधि प्रकाशन, जयपुर) प्रकाशित एवं चर्चित हुआ हैं। इनके 6 साझा कविता संग्रह भी छप चुके हैं, जिनमें कोरोना काल में साहित्य, अविरल प्रवाह पत्रिका, मगबंधु (मग महिला साहित्यिकी अंक), जशवाटिका, शतरंग (समर प्रकाशन) आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही वेवसाईट्स पर भी इनकी चुनिंदा कविताएं पढ़ी जा सकती हैं।

पुरस्कार एवं सम्मान और से नवाजा गया कई संस्थाओं द्वारा

शुभाजी को अनेक पुरस्कार एवं सम्मानों से नवाजा जा चुका है, जिनमें ’मांडवी प्रकाशन सम्मान’, ’नवीन कदम सम्मान’, विश्वलेखिका मंच व्दारा ’महादेवी वर्मा नारी रत्न सम्मान‘ विश्व रचनाकार मंच व्दारा ’छत्तीसगढ़ काव्यश्री सम्मान’, अंतरराष्ट्रीय महिला मंच व्दारा ‘महादेवी वर्मा कवयित्री सम्मान आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा यह अपनी रचनाओं का प्रभावी पाठ करने में भी सिध्दहस्त हैं। जिसके जरिए विभिन्न साहित्यिक आयोजनों में श्रोता समूह को मंत्रमुग्ध करने में समर्थ हैं।

चुनिंदा कविताएं

सुखकर

दुखों की फेहरिस्त में
इस नए दुख की उम्र बड़ी लंबी है
ये दुख अब आँखों से नहीं बहता
फेंफड़ों ,लिवर और किडनी
में ढीठ बन बैठा है
ह्रदय तो दुख के बारूद से ढका है
बस पलिता लगाने की देर है
अंतड़ियां अधमरे स्वाभिमान की तरह
कोने में ढही पड़ीं हैं
संशय की खाइयों में लटकी ये गहरी काली
आत्मसंताप की रात कटेगी भी या नहीं
हे माधव ! तुम विस्मृत न हो
इसलिए ये दुख है ऐसा तुम सोचते
किन्तु तुमने मुझ अनूठे को चुना
जिसकी हथेली की रेखाओं से
दुग्धाभिषेक होता है
अधरों से मधुस्नान होता है
दिव्यचक्षुओं से जलाभिषेक होता है तुम्हारा
अनाहत चक्र में विषधर दुख बैठा है
वहाँ तो तुम्हारा आसन है प्रिय
तुम तो वहीं रहोगे न जो सुखकर हो।

मुखौटे

बड़े लुभावने होते हैं मुखौटे सबके
लूट लेते हैं दिल सबके
शब्दों के बाजीगरी दिखाकर
ज्यों सीख आये हों ये विधा माँ के गर्भ से

शब्दों की पोटली लिए
जीवन की रुपहली नदी में
तुम खूब अठखेलियाँ किये
उलझे रहे अमोघ दावँ पेंच में

छलते रहे स्वयं को उनको वार कर
अपने भीतर के उफनते झरने को
थका दिया प्रतीक्षा करवाकर
सबसे सुंदर होगा वो दुर्लभ मंजर

समय प्रतीक्षा नहीं करता अनंत काल तक
बदल लो आपस में ये मुखौटे
छाती पर बंधी ये जन्मों की कटुता बहा दो
बाँट लो हँसी, स्वप्न ,आँसू देह के
राख होने तक बची रहेगी मनुष्यता !

मजदूर

बड़े बड़े ख्वाबों को
मुक्कमल किये तुम्हारे
ये मेहनतकश दो हाँथ
वो आकाश छूती इमारतें
या वो बलखाती काली सड़क
ये सारी धरती पहचानती है
तुम्हारे पसीने की महक
खेत हों या मेढ़ या हों
ईंटों की भट्टियाँ ……
या कोई चाय बागान
नहीं निकलता सूरज….
तुम्हारे बिन एक दिन…
रोटी और प्याज से तृप्त तुम
करते हो पूरे लोगों के ख्वाब बड़े
थपकी दे सुला देती तुमको नींद
जबकि रेशमी बिस्तर पर भी
टकटकी लग जाती सारी रात
अमीरों को ….
फटे वस्त्र ,टूटी घर की दीवार
भी नहीं छीन पाती तुम्हारा आनंद
खिलखिलाते हो यारों के साथ बैठकर
प्रकृति के वरदान ने बनाया भाग्यवान
किसने कहा तुम दुखी हो
निरीह हो….
तूम्हारी तो हाथों में है ये
दुनियाँ……..
तुम तो दुनियाँ के बेताज बादशाह हो.. ….

प्रेमाभिषेक

समय के प्रलाप को कौन सुन पाया
सब अपनी जुगत में व्यस्त
तुम्हारे हाथ क्या आया
कुछ उकताई हुई शामें
खुली आँखों से देखे सपने
लगातार बड़बड़ाते हुए दुख
पानी के बुलबुले सा फूटता सुख
मामूली से तुम हथेलियों में ढूंढते रहे
असाधारण सी रेखा
जो सुख की कोठरी में कैद रहे
रात्रि के अंतिम प्रहर में जब आँख खुल जाए
बंद कर लेना उन्हें फिर से अन्तरयात्रा के लिए
साफ नजर आएगा बस थोड़ी ही देर में
परियाँ आसमान से नहीं उतरतीं
वो तो रहती हैं हर घर के कोनों में
बाँटती फिरती हैं औषधियाँ हरएक की पीर में
उम्मीद न लगाओ आसमान से
चुन लो सितारे अपने ही आँगन से
तुम्हारा राजयोग प्रतीक्षा कर रहा
तुम कब करोगे प्रेमाभिषेक ?

आशीष

ये दुनिया उतनी ही
खूबसूरत है
जितनी मेरी बेटी
शैली की खिलखिलाहट
मेरी माँ की पुरानी चिट्ठियाँ पढ़ना
उतना ही ताजा है
जैसे मेरे केशों में उसकी
उंगलियों की गर्माहट
गाँव के दुआरे पर की
नीम की शाखें वैसी ही हैं
मन के झरोखों से फांद आती है
हवाओं की सरसराहट
जादू बुनता उस मिट्टी के
आंगन में चारपाइयाँ आज भी हैं
ओस में चादर ओढ़े सोये
हमसब के स्मृतियों की आहट
तुलसीचौरे का स्पंदन ,प्यार,
दुलार झिड़कियाँ आज भी हैं
अंजुरी भर पी लो हर क्षण जी लो
उस आँगन की अकुलाहट
उस प्यार को संजो लो
उन्होंने जो पाया सब दे दिया है
आँगन के मोगरे ,उड़हुल ,
छप्पर पर चढ़ी बेलें भी
आशीषों से गई हैं लिपट।

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