स्मृति शेष : जिसने नन्हीं सी दूब बनकर कविता की ज़मीन को शादाब किया

आशीष दशोत्तर

लगातार छह दशकों तक कविता की ज़मीन को मज़बूती प्रदान करते रहे कवि श्री आज़ाद भारती अनंत यात्रा पर चले गए । जेठानंद भम्भाणी यानी आज़ाद भारती रतलाम शहर के उन कवियों में शुमार थे, जिन्होंने अपनी मौजूदगी से हर उस गोष्ठी को सार्थक किया जिसमें कविता उपस्थित रहती थी। वे उस नन्हीं सी दूब के समान थे , जिसने कभी वटवृक्ष होने की ख्वाहिशें नहीं की, लेकिन अपनी उपस्थिति से कविता की ज़मीन को शादाब रखने की कोशिश ज़रूर की।

जेठानंद भम्भाणी यानी आज़ाद भारती

आज़ाद भारती का नाम अदबी नशिस्तों के लिए अनिवार्य सा था । वे हर संभव गोष्ठियों में मौजूद रहते थे । पूरे समय ध्यान से सुनते भी थे और जब अपने सुनाने का वक़्त आता तो बहुत छोटी कविता पढ़कर बैठ जाते थे । उन्होंने कभी अधिक पढ़ने की कोशिश नहीं की । गोष्ठियों में अमूमन एक से अधिक रचनाएं सुनाने की चाहत सभी की रहती है लेकिन आज़ाद भारती ऐसे कवि थे जो हर गोष्ठी में अपनी एक छोटी रचना सुनाते और उसमें अपनी कुछ अलग बात सभी के सामने रखते।

आज़ादी के बाद पाकिस्तान से हिंदुस्तान आए सिंधी परिवारों में आज़ाद भारती का परिवार भी शामिल था । वे अपनी पहचान कायम करने के लिए काफ़ी समय तक संघर्ष करते रहे । अपनी संघर्ष गाथा उन्होंने कई बार मुझसे भी साझा की । साहित्यकारों को मिलने वाली संस्कृति विभाग की सहायता राशि के तअल्लुक से भी उनका- मेरा राब्ता बना रहा । वे बहुत संघर्षों में जिए । बहुत अभाव में रहे लेकिन सदैव हंसकर मिलते रहे । मुस्कुरा कर जीते रहे और किसी के भी सामने अपने भीतर का दर्द ज़ाहिर नहीं किया।

आज़ाद भारती का साहित्यिक गोष्ठियों में न रहना खलेगा ज़रूर लेकिन उनकी कविताओं की पंक्तियां सभी साहित्यिक मित्रों के भीतर कहीं न कहीं गूंजती रहेगी। उनकी एक ख़ूबसूरत सी कविता ‘लंबे हाथ’ जिसका ज़िक्र किए बग़ैर आज़ाद भारती की शख्सियत को नहीं आंका जा सकता, आप भी पढ़िए –

ताला छोटा हो या बड़ा
गोदरेज का हो या अलीगढ़ का
फक़त एक विश्वास है
आश्रित जिसके छोड़ जाते हैं हम
जीवन की संपूर्ण झांकी ,शादी, मिलन
और सुख-दु:ख की डगर पर सैकड़ों मील दूर
तब विश्वास रहता है अकेला
मिलते ही सुनहरा मौका एक रात
चोंट करती है उस पर बेकारी
विश्वास घायल होकर गिर पड़ता है
सीधा बेकारी के चरणों में
और लुटा बैठता है सर्वस्व अपना
देखकर यह सफलता
ज़ोर से हंस पड़ती है
घर बैठे उसकी भूख पैबंद लगे कपड़ों में
फैला कर अपने दोनों लंबे-लंबे हाथ।

ऐसी महत्वपूर्ण रचनाएं आज़ाद भारती ने रतलाम के साहित्य जगत को दी है । साहित्य जगत उनके न होने पर ग़मगीन है और उन्हें अपने श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है।

⚫ आशीष दशोत्तर

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