मुद्दे की बात : सूरजपोल विद्यालय स्थित जमीन शासकीय घोषित

महाराजा लोकेंद्र सिंह ने 42 वर्ष पूर्व किया था विक्रय

न्यायालय ने स्वामित्व आधिपत्य नहीं माना

हरमुद्दा
रतलाम 1 अगस्त। पुराना राजमहल जो रणजीत विलास पैलेस के नाम से जाना जाता है। जहां सूरजपौर का दरवाजा है तथा वर्तमान में शासकीय विद्यालय है के पास स्थित भूखंड को प्रथम व्यवहार न्यायाधीश कनिष्ठ खंड मुगधा  कुमार ने शासकीय जमीन घोषित किया है। उक्त भूखंड का विक्रय विलेख महाराजा लोकेंद्र सिंह द्वारा वर्ष 1981 में किया गया था।

सूरजपोल स्कूल की जमीन जिसका छाया हुआ है मुद्दा

अतिरिक्त शासकीय अभिभाषक सतीश त्रिपाठी ने हरमुद्दा बताया कि राजमहल स्थित सूरजपौर वाली जमीन पर भूखंड क्रमांक छह स्थित है। जिसकी पश्चिम दिशा में सड़क तथा दक्षिण दिशा में जैन गृह निर्माण सहकारी समिति की खुली सड़क है । यह परिसर पूर्व में राजा महाराजाओं की रियासत की भूमि रहा है।

एडवोकेट सतीश त्रिपाठी

उक्त भूखंड के स्वामित्व एवं आधिपत्य को लेकर चौमुखी पुल रतलाम निवासी निर्मल कुमार पिता मोतीलाल मूणत द्वारा मध्यप्रदेश शासन व जिला शिक्षा अधिकारी के विरुद्ध वर्ष 2007 में एक दावा न्यायालय में प्रस्तुत किया था। इसमें बताया था कि 25 मई 1981 को हिजहाइनेस महाराजा लोकेंद्र सिंह ने सूरजपौर स्थित शासकीय विद्यालय के समीप भूखंड क्रमांक 6 विक्रय किया है। विक्रय दिनांक से ही निर्मल का कब्जा है। शासन द्वारा 24 अप्रैल 2007 को स्कूल के पक्के निर्माण के लिए कार्य शुरू कर दिया है। उक्त भूमि पर शासन को निर्माण करने का अधिकार नहीं है। शासन की ओर से पैरवी अतिरिक्त शासकीय अभिभाषक सतीश त्रिपाठी ने की।

वर्ष 1970 में शासन ने किया अधिग्रहण

उक्त मामले में शासन की ओर से लिखित में जवाब प्रस्तुत कर बताया गया कि शासन द्वारा वर्ष 1970 में अधिसूचना के द्वारा उक्त भूमि को अधिग्रहण किया गया था। इसके पश्चात नजूल भूमि घोषित कर जिला शिक्षा अधिकारी को आवंटित की गई। जिस पर विद्यालय भवन का निर्माण किया जा रहा है। वर्ष 1956 में शासन द्वारा सभी राजा महाराजाओं की भूमि को शासकीय संपत्ति घोषित किया गया था । इस आधार पर निर्मल  को सूरजपौर स्थित भूखंड क्रमांक 6 का भूमिस्वामी नहीं माना गया और दावा निरस्त कर दिया गया।

विक्रय पत्र साबित नहीं

न्यायालय में साक्ष्य के दौरान के  निर्मल मूणत ने  बताया था कि रतन गांधी ने महाराजा लोकेंद्र सिंह से जमीन खरीदकर प्लाट काटकर उन्हें बेचे थे। महाराजा लोकेंद्र सिंह ने रजिस्ट्री करवा दी थी। विक्रय पत्र को न्यायालय में साबित नहीं कर पाए ।

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