धर्म संस्कृति : संकीर्णता से उत्पन्न होती है साम्प्रदायिकता
⚫ आचार्य प्रवर श्री विजयराजजी मसा ने कहा
हरमुद्दा
रतलाम,12 अगस्त। मनुष्य जब होटल में जाते वक्त ये नहीं देखता कि वह किसकी है ? तो धर्म के कार्यों में लेबल क्यों देखता है ? दुनिया में 350 तरह के धर्म है। यदि व्यक्ति अपने धर्म और सम्प्रदाय को ही मानेगा, तो वह संकीर्णता में बडे अवसरों खो देगा। संकीर्णता ही साम्प्रदायिकता को उत्पन्न करती है। संकीर्णता के कारण व्यक्ति बडे से बडे धर्म कार्य से वंचित हो जाता है।
यह बात परम पूज्य, प्रज्ञा निधि, युगपुरूष, आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। छोटू भाई की बगीची में चातुर्मासिक प्रवचन देते हुए उन्होंने कहा कि संकीर्णता दुर्मति का बडा दोष है। इसकी उत्पत्ति तीन कारणों संवादहीनता, संदेहशीलता और संवेदन शून्यता के कारण होती है। यदि आपस में परस्पर संवाद रहे, तो संकीर्णता कभी नहीं आएगी। लेकिन मनुष्य हमेशा मैं क्यों करू के भाव में उलझा रहता है और ये संकीर्णता उसे परस्पर रूप से दूर कर देती है।
आचार्यश्री ने कहा कि संकीर्णता पहले भावों में आती है, फिर भाषा में उसका उपयोग होता है और इसके बाद वह व्यवहार में उतर जाती है। व्यवहार और भाषा में संकीर्णता पहले कभी नहीं आती। इसके लिए भाव ही दोषी रहते है, इसलिए हमेशा विस्तृत भाव रखो। संवादशील बनो और परस्पर एक-दूसरे के पूरक रहो। उन्होंने कहा कि संकीर्णता को हटाना प्रेम को फैलाना और मुस्कान को हमेशा बढाना चाहिए। संकीर्ण सोच वाले लोगों को वह आनंद, उल्लास और प्रसन्नता नहीं मिलती, जो विस्तृत सोच वाले महसूस करते है। समाज की, सम्प्रदाय की और परिवार की संकीर्णता व्यक्ति को पतन की और ले जाती है। इससे कभी किसी का उत्थान नहीं हुआ। उत्थान के लिए दुर्मति से मुक्त होकर सन्मति के मार्ग पर आगे बढना आवश्यक है। आरंभ में उपाध्याय प्रवर, प्रज्ञारत्न श्री जितेश मुनिजी मसा ने आचारण सूत्र का वाचन किया। प्रवचन के दौरान बडी संख्या में श्रावक-श्राविकागण मौजूद रहे।