शख्सियत : वैज्ञानिक युग में रहते हुए भी देश में अंधविश्वास चिंता जनक : कुंतेश दहलान
⚫ नरेंद्र गौड़
’देश इन दिनों संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। एक तरफ जहां भीषण गरीबी है, वहीं दूसरी तरफ अमीरी का नग्न नाच है। चंद्रमा पर सफलतापूर्व यान भेज चुकने के बाद भारत अब सूर्य के रहस्यों को उद्घाटित करने का अभियान चला रहा है, वहीं दूसरी तरफ इस वैज्ञानिक युग में घोर अंधविश्वास का बोलबाला है। साइंस और टैक्नालॉजी की तमाम उपलब्धियों को दरकिनार कर तथाकथित चमत्कारी बाबाओं का महिमामंडन किया जा रहा है। ऐसे में लगता ही नहीं है कि यही देश जी-20 का सफलता के साथ आयोजन कर विदेशों में शोहरत की बुलंदी छू चुका है।’ यह कहना था कवयित्री कुन्तेश दहलान का। इनका मानना है कि ’वैज्ञानिक युग में स्वांस लेने के बावजूद हमारा देश जाति-पात, धार्मिक पाखंड और घोर अंधविश्वासों की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। दुनिया के अन्य देश जहां उन्नति की चरम सीमाएं छू रहे हैं और आर्थिक समृध्द हो रहे हैं, वहीं हमारा देश हिंदू मुस्लिम की राजनीति का शिकार है।’
गुनगुनी चाय से शुरू होती स्त्रियों की सुबह
बुलंदशहर(उप्र) के जसनावली खुर्द सरदारशहर में जन्मी कुंतेश जी इन दिनों बुलंदशहर में समेकित बाल विकास सेवा विभाग में पर्यवेक्षक हैं। एमए हिंदी और राजनीति शास्त्र में करने के साथ ही आप बीएड की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर चुकी हैं। इनकी रचनाएं बुलंदप्रभा, शुभतारिका, अभिनव प्रयास, नारी अस्मिता, अनन्तिम सहित अनेक छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। हाल ही में इनका कविता संकलन ’गुनगुनी चाय और स्त्री’ प्रकाशित होने के साथ ही साहित्य के सुधि पाठकों में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। कुंतेश जी का कहना है कि बरसों से महिलाओं की सुबह घर परिवार के लिए चाय बनाने से होती है। किसी को फीकी, किसी को मीठी तो कोई बिना दूध की चाय पीता है और इन सभी के लिए चाय बनाना किसी यातना से कम नहीं है। वहीं कोई देर से सोकर उठता है तो उसके लिए चाय अलग तैयार करो। दोपहर को भी चाय और मेहमान आ जाए तो भी चाय।
महिलाओं के जीवन यथार्थ से रूबरू
औरत को कई बार लगता है कि उसकी हैसियत चाय की प्याली और चुस्की से अघिक नहीं है। इसी पीड़ा को समझकर मैंने यदि अपने कविता संकलन का नाम ’गुनगुनी चाय और स्त्री’ रखा है तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इनका कहना था कि इस संग्रह की कविता ’गुनगुनी चाय और स्त्री’ में कहा भी है कि ’चाय सी होती है स्त्री, या स्त्री सी होती है चाय, लगती हैं दोनों पर्याय, एक दूजे का कभी-कभी।’ इसी कविता में आगे हैं-’साथ हो जैसे, सदियों पुराना, तभी तो भाती है स्त्री को, उसका इंतजार करती गुनगुनी चाय।’ इन्होंने बताया कि उनके इस संकलन में 71 कविताएं हैं जिनमें स्त्री के अनेक चित्र, रूप और उसके स्वभाव को लेकर हैं। इन कविताओं में एक औरत के गुस्से, खीज, गहरी करूणा, स्मृतियों और हमारे समय की बेचैनियों को इनकी हर एक बुनावट में देखा जा सकता हैं। कहीं इनमें गहरी हताशा का स्वर है, तो कहीं उसी के बीच से कौंधती उम्मीद की रोशनी भी मौजूद है। यहां रोशनी एक चिंगारी को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने का खेल है तो यह प्रश्न कि आजाद चीजों को कैद करने का ऐसा खेल क्यों होता है।
कामवाली औरतें भी बंधन मुक्त नहीं
एक औरत पर एक नहीं अनेक बंधन लाद दिए जाने की चिंता भी इनकी कविता में है और वह स्त्री को आगज भी करती हैं कि मंगल सूत्र, पायल, बिछिए यह सभी बंधन हैं। इन्हें पहचान वरना तेरा जीवन नरक बनकर रह जाएगा-’जब किया नहीं अपराध कोई तो, फिर क्यों इन्हें स्वीकार किया है, पहचान अरे, ये बंधन हैं सब।’ इस संकलन की एक नहीं अनेक कविताओं विविध रूपाकारों में महिलाओं के जीवन का यथार्थ है। इन्होंने बताया कि इस संकलन में कामकाजी महिला की तकलीफ को अलग ठंग से देखने की कोशिश है। कुंतेश जी का कहना है कि कामकाजी महिला को लंच बाक्स तैयार कर ऑफिस जाने के बजाए वह क्षण प्रिय लगता है, जबकि वह चुटकी दो चुटकी समय अपने लिए भी निकालकर पसंद की कोई मैगजीन पढ़ने लगती है, हालांकि ऐसे फुर्सत के मौके कम ही मिला करते हैं।
कविताओं में संसुक्त परिवार का जीवन सच
इन कविताओं में एक स्त्री के संयुक्त परिवार का जीवन सच है, जहां सास, ससुर, बेटा, बेटी, पति, आदि सभी हैं जिन्हें मैनेज करती एक स्त्री है। संकलन की कविता ’घरेलू स्त्री’ में घर परिवार की चक्की में पिसकर अपना वजूद खो चुकी स्त्री को सचेत करने की कोशिश है। कवयित्री उससे सवाल करती है कि ’ क्यों पतन कर रही है अपना, तू चाहे तो सब संभव है, हर हूनर समाहित है तुझमें, फिर कौन सी बात असंभव है।’ संकलन की कविता ’कन्यादान क्यों’ ऐसी ही कविता है जिसमें बेटी को पराया धन कहे जाने और कन्यादान को लेकर समाज से सवाल किए गए हैं। पूछा है कि बेटी क्या वस्तु है? या वह मोती की लड़ी है? क्या विवाह संकार बिना उसके दान किए अधूरा रहता है?
सामाजिक बंधनों के खिलाफ कविताएं
सामाजिक बंधनों के खिलाफ आवाज उठाती कुंतेश दहलान के पास अनेक कविताएं हैं। मसलन ’हां मैं भी अधिकार की बात करती हूं’, ’औरत का हक’, ’कुछ प्रश्न घरेलू स्त्री से’, ’वैधव्य का ददर्,’ ऐसी अनेक कविताएं हैं। इन कविताओं में तेजी से बदल रहे रिश्ते और गुम हो रही चीजें हैं जिनका हमें हमेशा इंतजार रहता है। कुंतेश के पांव अपनी जमीन को पहचानते हैं और अपने आसमान को भी। यह कविताएं उन दृश्यों और समस्याओं को सामने रखती हैं जो अतिपरिचित हैं। सबके देखे- भाले हैं। इन कविताओं के दृश्य हमारे जीवन के एकदम आसपास बिखरे जीवन के दृश्य हैं। इनमें आक्रोश भी है और बेखौफ बेलाग सवाल भी पूछे गए हैं।
कल्पना की उड़ान के बजाए जीवन यथार्थ
कविताएं कल्पना की ऊंची उड़ान भरने के बजाए जीवन यथार्थ टटोलती हैं। जिंदगी के तीखे सवालों समस्याओं का सामना करती यह कविताएं मनोरंजन का सामान नहीं होकर पुरूष सत्तात्मक समाज में स्त्री की अस्मिता की पहचान करती हैं। सार्थक रचनाकर्म को समर्पित इन कविताओं की आवाज दूर तक जाती है और उसकी प्रतिध्वनि भी देर तक सुनाई देती है। सभी कविताओं का उल्लेख एक समीक्षा में नहीं कर पाना मजबूरी है। चाहता तो था कि तमाम कविताओं को यहां समेटा जाए, लेकिन समीक्षा की अपनी सीमाएं होती हैं। संकलन की अच्छी कविताओं में- बरसों लगे मुझे, खुद ही तो बनाते हैं, बुजुर्गों के साथ, ए मन मेरे, पति पत्नी या जीवन साथी, पुरूष तो वही पुराना है, प्रियतम के घर जाती शाम, मेरे अंतर्मन, कभी तू होना ना बेजार, मैंने लहरों से सीखा जीना, मानवता बहरी, सच कितने अभागे हो तुम, खुशी की कविता, के अलावा और भी कविताएं हैं। इनका कविता संकलन ’गुनगुनी चाय और स्त्री’ ’समन्वय प्रकाशन के.बी. 97 कवि नगर, गाजियाबाद -201002 (उप्र) से प्रकाशित और चर्चित है। संकलन का अत्यंत आकर्षक आवरण दिव्यांश ने तैयार किया है और सशक्त भूमिका डॉ.अनूप सिंह ने लिखी है। (यह लेख के अपने विचार है,हरमुद्दा इसके लिए सहमत हो जरूरी नहीं)