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साहित्य सरोकार :  “पुरखों के लिए”

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आशीष दशोत्तर

पुरखे तृप्त नहीं होते
केवल खीर -पूड़ी के अर्पण से,
पुरखे तृप्त नहीं होते
सिर्फ़ ब्रह्म भोज या तर्पण से ,
वे महज धूप-ध्यान से भी अतृप्त ही रहते हैं।

पुरखे तृप्त होते हैं
अपने वंशजों के बीच मौजूद
अपनत्व और प्यार से ,
पुरखे तृप्त होते हैं
अपने पुराने घर पर बंधे स्नेह के बंदनवार से ,
पुरखे तृप्त होते हैं
नौनिहालों के हाथों में कलम-स्लेट देखकर,
पुरखे तृप्त होते हैं
बच्चों के चेहरों की मुस्कान समेटकर ,
पुरखे तृप्त होते हैं
परिवार के साथ बैठने, मिलने, बतियाने से,
पुरखे तृप्त होते हैं
रिश्तों के बीच की कड़ियों के जुड़ते जाने से,
पुरखे तृप्त होते हैं
बच्चों के नाम के साथ
गर्व से किए जा रहे उनके ज़िक्र से,
पुरखे तृप्त होते हैं
नई पीढ़ी में अपने संस्कारों की फ़िक्र से ।
पुरखे तृप्त होते हैं
पीपल में जल चढ़ाने के साथ
वृक्ष को बचाने की कामना से,
पुरखे तृप्त होते हैं
पक्षी को रोटी खिलाने के साथ
हर प्राणी के प्रति संवेदनशील भावना से,
पुरखे तृप्त होते हैं
किसी भूखे को दो रोटी देने से,
पुरखे तृप्त होते हैं
किसी के दर्द से वाबस्ता होने से।
पुरखे अतृप्त ही रहते हैं
ऐसा कुछ किए बिना
खीर-पूरी, धूप-ध्यान करने से।

आशीष दशोत्तर

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