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चुनाव / बातें तो हैं : पहले भी हराया था, अब भी हराएंगे, परिवारवाद से वे भी खफा, दम तो है निर्दलीय में

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हेमंत भट्ट

अभी तक तो चुनाव के लिए उम्मीदवारों की घोषणाओं पर चर्चाएं चल रही थी लेकिन अब तो नामांकन पत्र जमा करने का अंतिम दिन आ चुका है। ऐसे में जो उम्मीदवार नजर आ रहे हैं, उनके लिए बातें तो हो रही है। बातें तो हैं। अब कितनी सच साबित होती है, यह तो भविष्य के गर्त में छुपा हुआ है मगर बातों ही बातों में मतदाता कहते नजर आ रहे हैं पहले भी हराया था, अभी हर आएंगे, अब यही इशारा किस ओर है, समझने वाले समझ रहे हैं। राजनीति में परिवारवाद हावी होने के चलते खफा है जो उम्मीदें लगाए हुए हैं। जो भी हो निर्दलीय में दम तो नजर आ रहा है, यह भी अपना वजूद जरूर दिखाएंगे।

रतलाम शहर में जिधर कान रखों उधर बस चुनावी चर्चा ही सुनने में आ रही है। जितने लोग हैं, उतनी बातें हो रही है। चर्चा में लोग दोहरे अर्थ वाली भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। पहले भी हराया था, अब भी हराएंगे। दोनों उम्मीदवार के लोग अपने-अपने नजरिए से इसके अर्थ निकाल रहे हैं। बात सच भी है पहले भी हराया था, अब भी हराएंगे। चाहे वह कांग्रेस का उम्मीदवार हो या फिर फिर भाजपा का। मगर कुछ भी हो, जो लोगों से मिल नहीं रहे थे, लोग उनसे मिल रहे हैं। उनका आतिथ्य कर रहे हैं। स्वागत कर रहे हैं। भले ही उनके वहां पर उलाहना मिली हो। यह तो मतदाताओं का संस्कार है कि वह उसका निर्माण करने में पीछे नहीं हटते हैं मांगने वाले को देते रहते हैं, मगर गिड़गिड़ाते नहीं है।

परेशान होते हैं तो केवल मतदाता, मतदाता और मतदाता

लोग बातें यह भी कर रहे हैं कि सर्वे सच साबित हो गया तो एक बार फिर रतलाम गड्ढे में चला जाएगा। ऐसे कई लोगों हैं जो व्यक्ति को नहीं रतलाम के विकास को चाहते हैं जो अभी विकास उनको बताया जा रहा है, लगता है उससे संतुष्ट नहीं है। सड़क, पानी, सफाई के लिए परेशान मतदाताओं को कौन सा विकास दिखा रहे हैं, वह उनको नजर नहीं आ रहा है। हां, यह बात जरूर बोल रहे हैं कि विकास इस मामले में हुआ है कि अतिक्रमण काफी फला फूला है। मनमानी को पंख लगे हैं। इनको रोकने वाला कोई नहीं है नहीं। शहर के प्रति जिम्मेदार जनप्रतिनिधि और नहीं शासन के आला अफसर। परेशान होना पड़ रहा है तो केवल और केवल मतदाताओं को। जब मतदाता परेशान होता है तो वह परेशान कर भी सकता है।

कार्यकर्ता तो है खफा

जिले के मतदाता परिवारवाद की राजनीति से काफी खफा है। परेशान है। वजह बिल्कुल साफ है कि उनको अवसर नहीं मिल पा रहा है जो कि इसके काबिल हैं और पार्टियां यह देखती है कि जो जीता है, वही सिकंदर, चाहे वह बाउंड्री पर आते-आते ही जीता हो, जबकि हार तो उनके गले लगने वाली थी। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थी अपना रास्ता भी पकड़ लिया था मगर बरस गई कृपा और जीत गए। नए पर क्यों रिस्क ले, यही फैक्टर हर बार आ जाता है और चाहे वह कांग्रेस का हो या भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी। उनसे उम्मीद रखने वाले कार्यकर्ता तो खफा है ही। परिवारवाद की राजनीति से पार्टियों को उभारना चाहिए ऐसा लोगों का कहना है।

कब तक बिछाते रहेंगे हम जाजम

प्रतिभाशाली नेतृत्व करने वाले लोगों के चाहने वालों का तो यही कहना ही की आखिर कब तक झंडा तोकते रहेंगे। कब तक जाजम बिछाते रहेंगे। काम हम करें और जिसने कभी फील्ड में कांग्रेस के जयकारे नहीं लगाए, वह हमारे ऊपर बैठेगा तो बैठने क्यों देंगे? सरकार ने कुर्सी दी तो उसे पर ही बैठो, क्यों छोड़ कर आते हो। यह तो पार्टी के मुखियाओं की सरासर गलती है कि वह फंड के चक्कर में अंड संड लोगों को प्रत्याशी बना देती है। जिस तरीके से बड़े-बड़े नेता दोनों पार्टियों से ताल्लुक रखते हैं वैसे ही कार्यकर्ताओं का भी कहना है कि हमारे भी ताल्लुक सभी से बेहतर है । हम रहेंगे किधर और काम किधर हो जाएगा, पता भी नहीं चलेगा।

मतदाता नहीं मिलते विरासत में

अब जब कार्यकर्ता और नेता खफा है तो ऐसे में अपना वजूद कायम करना आसान नहीं है। काफी मुश्किल भरा है, भले ही राजनीति उनको विरासत में मिली है। धनवाल हो। बाहुबल हो। फ़ौज हो, मगर मतदाता विरासत में नहीं मिलते हैं। मतदाता तो मत का सही उपयोग करना जानते हैं। वह किसी हवा या दुआ में नहीं, कसमे वादों में नहीं अपितु बंदे का दम देखते हैं जिसका नाम चलता है, जो सरल सहज उपलब्ध हो।

वह तो है ताल ठोक कर मैदान में

चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों का तो क्या कहना है, वे ताल ठोक कर मैदान में डट गए हैं और पार्टी के प्रत्याशी की नाक में दम करने के लिए वह काफी है। पहले भी उनके राजनीतिक कद को देख चुके हैं। लोगों का तो यही कहना है कि राजनीति किसी के बाप की बपौती नहीं है। जिसमें हुनर होगा, वह विजेता का परचम जरूर लहराएगा।

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