शख्सियत : साहित्य को होना पड़ेगा समाज सापेक्ष

हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर और जनकवि कवि जनेश्वर का मानना

नरेंद्र गौड़

आक्रोश और प्रतिरोध का संयम हमें रुककर सोचने को विवश ही नहीं करता, बल्कि अंदर से उत्तेजित और विचलित भी करता है। इन कविताओं में रचाव का ठंडापन नहीं है, वरन एक आग है। इन कविताओं की सृजनात्मकता का उत्स दरअसल उनकी विशिष्ट संवेदना में ही है।

’अरस्तु का कहना था कि काव्य का लक्ष्य एक उच्च स्तरीय आनंद प्रदान करना है।’ लेकिन आज समाज और समय बहुत बदल चुका है। कविता, कहानी उपन्यास सहित साहित्य की सभी विधाओं, कलारूपों को भी समाज सापेक्ष होना पड़ेगा, वरना उसके गढ़े लिखे और रचे जाने का कोई मतलब नहीं है।’

हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर और जनकवि जनेश्वर


यह बात हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर और जनकवि जनेश्वर ने चर्चा में कही। इनका कहना है कि आज सभी कुछ बाजार के हवाले हो चुका है और कविता सहित कला के सभी उपादानों पर बाजार छाया है, ऐसे निर्मम समय में प्रतिबध्द कविता लिखना भी किसी जोखिम से कम नहीं है। अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हुए रचाव की दुनिया में प्रवेश करना ही वास्तविक कविता है। आज फेसबुकिया कवियों ने कविता का सर्वाधिक अवमूल्यन किया है और नकली कविता से मोबाइल भरे पड़े हैं, ऐसे में असल कविता पाठकों से दूर होती जा रही है।वहीं टीवी पर जिस तरह की कविताओं का प्रसारण हो रहा है, उसे ही आम आदमी असल कविता मानने लगा है।’

कविताओं में रचाव का ठंडापन नहीं है, वरन एक आग

जनकवि जनेश्वर हमारे समय के महत्वपूर्ण प्रतिबध्द कवि हैं जो धरती के ताप और उष्मा को पहचानते हैं। वह जनता से जुड़े और घर व्दार के कवि होने के साथ जन-प्रतिरोध के कवि भी हैं। हाल ही में इनके दो कविता संकलन प्रकाशित हुए हैं। पहला ’रोशनी की तरेड़’ और दूसरा ’सदी के नक्शे से।’ जनेश्वर की कविताएं यथास्थितिवाद पर सीधी चोट करती हैं। ऐसे प्रश्नों के पीछे आक्रोश और प्रतिरोध का संयम हमें रुककर सोचने को विवश ही नहीं करता, बल्कि अंदर से उत्तेजित और विचलित भी करता है। इन कविताओं में रचाव का ठंडापन नहीं है, वरन एक आग है। इन कविताओं की सृजनात्मकता का उत्स दरअसल उनकी विशिष्ट संवेदना में ही है। इनकी कविताएं जीवन की विडम्बनाओं से उपजती और आकार ग्रहण करती हैं।

कविताओं में शब्दों के साथ खिलवाड़ नहीं

इन कविताओं में शब्दों के साथ खिलवाड़ नहीं है और न भाषिक चमत्कार है, वरन यह एक ईमानदार कवि की खरी कविताएं हैं। इन कविताओं से गुजरते हुए हम पाते हैं कि इनमें आम नागरिक के जीवन यथार्थ हैं। यह कविताएं अपने अन्य समकालीनों की तरह ही समाज को रूग्ण और क्षतिग्रस्त करने वाली हरकतों और ताकतों कीे बारीक पहचान करती हैं तथा उनके प्रति अपने मौलिक ढ़ंग से प्रतिकार भी करती हैं। इनके संकलन ’रोशनी की तरेड़’ में कारोना महामारी और संयुक्त किसान आंदोलन से संबध्द कविताओं की बानगी भी है। इन कविताओं के सपने किसी नारे, किसी झंडे की तरह न होकर जमीनी के रूप में ही दिखाई देते हैं। हालांकि जनेश्वर खुद को जनकवि होने का कोई भ्रम नहीं पालते हैं, लेकिन वह जनकवि हैं, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। जनकवि होना कोई तमगा या अलंकरण नहीं है, बस कविता के रूपाकारों के लिए गढ़ी गई सरल और आसान परिभाषा है और जनेश्वर की कविताएं इसके बाहर नहीं हैं। यह कविताएं श्रमशील मनुष्य की पक्षधरता को कहीं भी अतिक्रमित नहीं करती हैं।

पहला कविता संकलन 2015 में ’सदी के नक्शे से’ प्रकाशित

जनेश्वर ने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत सर्वोदय के पश्चात तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी तदनंतर सी.पी.आई (एम) से की और इनका रचनात्मक लेखन वर्ष 1972-73 से प्रारंभ हुआ। पहली रचना का प्रकाशन यदुनाथ थत्ते के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ’आंतर भारती’ में हुआ। इसके बाद इनकी रचना का प्रकाशन अखिल भारत तरूण शांतिसेना की पत्रिका ’तरूण मन’ में हुआ। वर्ष 1975 में इनकी कविता वामपंथी पत्रिका ’उत्तरार्ध’ में छपी और चर्चित हुई। इनके अलावा कंक, नयापथ, युग परिबोध, कला समय, परिपत्र, कृति ओर, दुनिया इन दिनों, आदि में भी छपती रही हैं। आकाशवाणी इदौर से अनेक बार रचना पाठ भी कर चुके हैं। वर्ष 1975 में इन्होंने साहित्यिक पत्रिका ’वाममित्र’ का भी संपादन किया। जनेश्वर का पहला कविता संकलन 2015 में ’सदी के नक्शे से’ प्रकाशित हुआ। कविता संकलन ’रोशनी की तरेड़’ उद्भावना प्रकाशन, एच-55-23, राजनगर, गाजियाबाद से 2022 में छपा है। दूसरे कविता संकलन ’सदी के नक्शे से’ का प्रकाशन वर्ष 2015 में लोकजतन प्रकाशन, बीटीआर भवन, 13 -बी, पद्मनाभ नगर, भोपाल ने किया है।


चुनिंदा कविताएं

चुप

एक वही तो है
सबसे भली
न ऊधो का लेना
न माधो का देना
उसके रहते नहीं चाहिए
किसी भी तंत्र की
जेड सुरक्षा
कुछ भी खर्चने की
जरूरत नहीं
और जिसके रहते
निर्विकल्प भाव से
अंत तक गारंटी जीने की
इतिहास के सबसे महंगे
इस दौर में
वही भरोसा है एक मात्र
सयाने इसे जानते हैं
तभी तो वे चुप हैं
जबकि सारा देश
चीखों में मुब्तिला है।

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फिलहाल

पेट की जरूरत की घंटी
दिमाग में बजी
और इस तरह जन्म हुआ
भूख के पहले अनुभव का
फिर सक्रिय हुए हाथ
अलबत्ता रोटी तक
पहुंचने में
एक लम्बा वक्त गुजरा
रोटी से ही शांत होती है
पेट की आग
यह अनुभव दूसरा था
भूख से रोटी तक की
यात्रा कर चुके अनुभव
फिलहाल चौराहे पर हैं।

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बाकी फैसला

मिताक्षरा बन जाएगी
यह दुनिया एक दिन
जैसे खत्म हुई दूरियां
भाषा का कोष भी रीत जाएगा
जैसे नहीं रहेंगे
तुम्हारे खेत तुम्हारे
जैसे नहीं रहेंगे
डॉगर तुम्हारे
जैसे नहीं रहेंगे
तुम्हारे अपने तुम्हारे
सपने तुम्हारे
मिताक्षरा बन जाएगी
यह दुनिया एक दिन
लेकिन वह अक्षर
श्वेत दुनिया का होगा
या स्याह दुनिया का
यह फैसला तो अभी बाकी है।

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लय

लय अगर टूटती
तो मर जाती नदी
नदी के रूपक से बंधा है
हर तरलता का नाभिक
बंूद और समुद्र
इसी में समाए हैं
जो टूटती है
वह लय नहीं है।

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मतदाता

आईनों पर, कल आया
कलाई करने वाला
मुझे हॅसी आई, जब मैंने उसका
देखा चेहरा
बेतरतीब बिखरे केश
उलझी झाड़ियों-सी लटें
बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी
होंठ सूखे, पपड़ाए
आंखों में कीच
भवों में गर्द
चेहरे की उभरी नुकीली
हड्डियों पर
समय के निशान
मैंने उससे ’परिचय पत्र’ के
बारे में पूछा
दरअसल
मैं वह चुनाव क्षेत्र
देखना चाहता था
जिसका वह मतदाता था।

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