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शबनम पानी की बूंद नहीं

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शबनम पानी की बूंद नहीं
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शबनम
कोई
साधारण
पानी की
बून्द नहीं
यह मोती है
रजनी के विरह रुदन का
शबनम
लोकेश के पग पखारते
निकला रजरस है
शबनम

शीतल तम का उजला अर्क है
निशा कई सृजन गढ़ती है
घोर गुप्त होकर काली चादर में
पग की पाजेब हाथ से दबाए
रोकती है नाथ के अकथनीय
संसर्ग साक्ष्य को
पदचिह्न अदृश्य करने के लिए
मुक्तक से बिखेरती है
अपनी ही नैत्र सुधा
निशाश्रु है शबनम
शांत चुप्पियों में बनता है
बिना घात आघात के अमोलक
भाव विभोर क्षणों को
कन्त कन्त कहती अघाती नहीं माया तब
तरुण शिव रंजिनी
बिंदु बिंदु बन बिखर जाती है
अनुराग विराट शिव के चरणों में
बनकर महीन सूक्ष्म निर्मल
आकर्षक निशिकर
शबनम पीने के लिए
फूल बनना होगा
शबनम

झरण है व्यथा के रहस्य का

शबनम

रात उतरी देव नर्तकियों का
श्रम श्वेद है
शबनम जल बिंदु नहीं
शबनम अथाह में चले मंथन का
पुरस्कार बिंदु हैं
रजनी के पाजेब की
एक मंद्तम झंकार हैं
छन …………

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✍ त्रिभुवनेश भारद्वाज
सृजनकार

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