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व्यंग्य : ये इश्क नहीं आसां

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‘वेल इन टाइम’ वाले लोग ‘वैलेंटाइन ‘ के चक्कर में पड़कर  ‘बेलन तान दे’ वाली स्थिति में पहुंच जाते हैं।  जो बेचारा इसमें नहीं उतरता, उसे भी चैन नहीं लेने देते। टोकते हैं, टोंचते हैं, नुक्ताचीनी कर नोंचते हैं और ठोक-बजाकर बातों ही बातों में ठोकते भी हैं।

आशीष दशोत्तर

आग के दरिया में उतरने वाले कम नहीं। यह जानते हुए भी कि यहां झुलसने के अलावा कुछ नहीं मिलता, वे उतरते हैं,विचरते हैं, उछलते -कूदते हैं और तप तपाकर ही चैन लेते हैं। चैन भी कहां लेते, अपने फफोले सबको दिखाते फिरते हैं।


जो बेचारा इसमें नहीं उतरता उसे भी चैन नहीं लेने देते। टोकते हैं,टोंचते हैं, नुक्ताचीनी कर नोंचते हैं और ठोक-बजाकर बातों ही बातों में ठोकते भी हैं। बार-बार कहते हैं ‘ तुम तो बेकार हो।’ एक दरिया में न उतरने से आदमी कैसे ‘यूजलैस’ हो जाता है,यह इन बेचारों को मिलती मानसिक प्रताड़ना को देखकर समझा जा सकता है।


एक ख़ास किस्म ‘ उतर कर भी न उतरे अभागों ‘ की होती है। ये दरिया में उतरने के बाद दरिया पार कुछ देख ही नहीं पाते। ये दरिया से डूब कर जाते नहीं, दरिया में डूबते जाते हैं। ऐसे अभागे ‘ न इधर के रहते हैं न उधर के । ‘ ये कहीं भी देखे जा सकते हैं। उम्र के नाज़ुक मोड़ पर प्यारचंद से ‘प्यारे’ बनीं कई हस्तियों को आज तक होटलों में कप-प्लेट धोते हुए देखा जा सकता है। ढाई आखर पढ़कर पण्डित होने वाली बात का इन पर इतना गहरा असर पड़ता है कि बस्ते को तत्काल बाय-बाय कर दिया करते हैं। फिर पलट कर नहीं देखते, बस ‘ उसके ‘ पलटने का इंतज़ार करते रहते हैं। ‘वो’ नहीं पलटती , इधर क़िस्मत पलट जाती है।


कैम्पस में होते तो कैम्पस सिलेक्शन होता। ये तो कैम्पस के बाहर ही मशगूल रहते हैं। चोंट लगती है तो ओपन स्पेस यूनिवर्सिटी के समीप अहाते में ‘मस्ती की पाठशाला’ में स्वत: प्रवेशित हो जाते हैं। ढाई आखर की डिग्री के भरोसे ये बगैर प्लेसमेंट के सीधे रेस्टोरेंट आ पहुंचते हैं। पैकेज थामने के लिए बने हाथ पोहे की खाली प्लेट पर घिसकर अपनी हस्तरेखाओं को पढ़ने की कोशिश करते। पहले विद्रोही रूप धर, अपने गुस्से का इज़हार करते। ‘ग़मे-जानां’ से ‘ग़मे-दौरां’ को परिचित करवाने की कोशिश करते। कहीं से कुछ आसार नहीं दिखने पर ‘ मेरी महुआ’ गुनगुनाते हुए दुःखी मन से सच स्वीकार किया करते हैं।  कभी ‘उसको’ सबसे ख़ास बताते-बताते अब फ़ानी दुनिया को ही बकवास बताने लगते हैं। धूजते हाथ और हिलती गर्दन के दौर से गुज़रते हुए भी ‘उसे’ नहीं भूल पाते।


येन-केन-प्रकारेण जिनके मुक़द्दर में ‘अक्खर’ आ जाए तो क्या हुआ? गले पड़ी आफत को निभाते हुए वक़्त गुज़ारना पड़ता है।  एक बार ‘पेंच’ लड़ जाए यह तो ठीक है मगर ‘पेंच’ गले ही पड़ जाए तो क्या फायदा? न कहीं दांव लगाने के रहे और न पेंच लड़ाने के। इस ‘वन टाइम सेटलमेंट’ के चक्कर में ‘बैटर हाफ’ तो सैटल हो जाए मगर लाइफ नहीं। एक बार भभककर जलने वाली चिमनियों को उम्रभर टिमटिमाना पड़ता है।  ये आग होती ही ऐसी है। लगाए न लगे । लग जाए तो बुझाए न बुझे। आदमी बुझ जाए मगर ये मशाल रिले रेस की मानिंद एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंचती रहती है।


‘वेल इन टाइम’ वाले लोग ‘वैलेंटाइन ‘ के चक्कर में पड़कर  ‘बेलन तान दे’ वाली स्थिति में पहुंच जाते हैं। एक ‘फूल’ देने के बाद ‘फूल के कुप्पा’ होने वाले ऐसे जीव जीवन भर ‘फुलिश’ के सम्बोधन से मुक्त नहीं हो पाते। एक फूल का खामियाजा उम्रभर जूड़े में लगाने वाले गजरे ख़रीदते हुए चुकाना पड़ता है। इस गुलशन की महक तो मादक है मगर राह आसान नहीं।

-12/2, कोमल नगर
बरबड़ रोड
रतलाम-457001
मो.9827084966

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